दशरथ के जाने के बाद कैकेयी ने आनंदमग्न होकर मंथरा से कहा- कुछ ही दिनों में रघुवंश के सिंहासन पर अभी तक का सबसे श्रेष्ठ राजा सुशोभित होगा। ये किसी भी स्त्री के लिए सर्वाधिक गौरवशाली क्षण होता है जब उसका पुत्र राज सिंहासन पर बैठता है।
ये कहते हुए कैकेयी ने अपने कंठ में धारण किया हुआ माणिक्य का हार निकाला और मंथरा को पहना दिया।
राम के राज्यारोहण की बात सुनकर कैकेयी का इतना प्रसन्न होना मंथरा को रास नहीं आ रहा था, वह चिंता से भरी हुई बोली- तुम्हारा पुत्र ? वह तो भरत है। जिसके भाग में महाराज ने राजसिंहासन नहीं राजछत्र लिख दिया, जिसे पकड़कर वो राम के पार्श्व में उपस्थित रहेगा। मुझे समझ नहीं आता कि इसमें इतना प्रसन्न होने की क्या बात है, जो महारानी ने अपना बहुमूल्य हार उतारकर मंथरा के गले में डाल दिया ?
कैकेयी ने बहुत मधुरता से कहा- अरी मंथरा, जो स्वयं के गर्भ से जन्म लेते हैं क्या वही पुत्र कहलाते हैं ?
मातृत्व दैहिक नहीं भावनात्मक अवस्था होती है। इसे गर्भ से जन्म लेने वाले माँसपिंड की सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
माता का अर्थ बहुत व्यापक और गहरा होता है, धारण, कारण और तारण ये तीनों गुण जिसमें विद्यमान रहें वह माँ होती है। इसलिए चाहे आत्मा हो, महात्मा हो या परमात्मा हो सभी को स्वयं की पूर्णता के लिए माँ रूपी गुण को आत्मसात करना होता है।
कौशिल्या ने यदि राम को अपने गर्भ में धारण किया है तो कैकेयी ने राम के अंतर्निहित गुणों को अपने चित्त में धारण किया है।
कौशल्या, राम रूपी चेतना को शरीर युक्त करने के कारण उसकी माता है, तो कैकेयी उसकी चेतना को शरीर से मुक्त कर उसकी चेतना के परिष्कार उसके विस्तार में सहायक होने के कारण उसकी माता है।
कौशल्या ने राम के शरीर को धारण किया है तो कैकेयी ने राम के संकल्प को धारण किया है।
जन्म देने वाली माता आवश्यक नहीं कि वह अपनी संतान के गुणों और उसकी क्षमता के परिष्कार का हेतु हो ? माँ और मातृत्व ये दोनों एक जैसे होते हुए भी भिन्न अवस्थाएँ होती है, माँ को प्रेम का ज्ञान होता है तो मातृत्व को ज्ञान से प्रेम होता है।
कौशल्या राम के जन्म का हेतु हैं, तो मैं उसके जीवन की आधार हूँ।