जीवन मृगतृष्णा सी भटकाए,
हर पल जो संग थे
वही निकले पराए।
जिंदगी रेत की तरह फिसलती रही
और हम बंद मुट्ठी में खुशियां भरते रहे।
बड़े प्यार से इक -इक धागा बुनकर
रिश्तों की, जो कशीदाकारी की थी हमने,
इक फंदा क्या उतरा....
और रिश्ते उधड़ते रहे।
रूठना न आया हमें,
सब पर प्यार ही प्यार बरसाते रहे....
न जाने कहां चूक हुई....
सब रूठते रहे और हम मनाते रहे।
दिल में बसाया, जिन्हें खुदा की तरह,
वो फरमान सुनाते रहे,
और हम बंदे गुनहगार बनते रहे।
हर खुशियां वारीं जिनपर
वही.....
ग़म पिलाते रहे,
और हम मुस्कुराते रहे।
हर पल जिंदगी छलती रही
और हम नई उषा की उम्मीद जगाते रहे।
क्या कहूं मारा..........
जिंदगी कुछ यूं ही
रेगिस्तां में मृगतृष्णा बन
हमें भटकाती रही.....
बस कुछ इसी तरह हम दोनों ही,
इक दूजे का साथ निभाते रहे।
कल्याणी दास (स्वरचित)