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सबकुछ हो चुका है

22 दिसम्बर 2018

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सबकुछ हो चुका है:


उत्तेजित-से स्वर में

उनके सामने पढ़ रहा था

मैं अपनी कुछ पसंदीदा कविताएँ,

और वह भी उन्हीं की भाषा में लिखी हुई

उन्हीं के कवियों की

उस वक़्त शायद मेरी आँखें चमक रही थीं

एक के बाद एक पंक्तियाँ सामने आ रही थीं

एक के बाद एक पन्ने पलट रहा था

और उनके सामने रख रहा था

कुछ बेजोड़ चीज़ें, जो उन्हीं की भाषा में कभी लिखी गई हैं

कभी किसी कविता का नाम उन्हें जाना- पहचाना सा लगता

तो कभी किसी कविता का शीर्षक सुनकर वे अचंभित हो जाते कि हमारी

भाषा में यह कविता भी है! हमें तो ख़बर ही नहीं …

मैं पढ़ते वक़्त कोशिश कर रहा था कि एक एक शब्द ,

उसका एक एक मोड़ , उसकी एक एक रेखा उसकी ठीक गहराई और गरिमा के साथ पहुँचे

कभी मैं उस कवि की कुछ खासियतों पर टिप्पणी करता ; कभी उनसे कुछ पूछता, उन्हें उकसाता …


समझ में नहीं आता , आदमी को हमेशा हमसफ़र की तलाश क्यों रहती है !


मेरा कहना कुछ ज़्यादा नहीं था , बस इतना ही कहना चाहता था

कि अगर कोई संगीत, साहित्य , नृत्य , नाटक आदि की परम्परा ठीक से , गहरे से समझे और उसे पचा पाए तो

वह कुछ मौलिक लिख सकता है , बना सकता है , कुछ नयी दिशा खोज सकता है

मैं अपने देश में , अपनी भाषाओं में मुट्ठीभर ऐसे लोगों को जानता हूँ। बस !


उसने कहा , "ऐसा ज़रूरी नहीं है!"

उसकी उम्र होगी शायद २४ साल ,

वह संगीतकार है!

" मेरे ख़याल से सबकुछ हो चुका है। ज़रा देखिए तो , लोगों ने कौन-कौन से प्रयोग किए हैं ,

जलते हुए पिआनो पर धुनें बजायीं हैं , यहाँ तक कि हेलीकॉप्टर से पियानो को फेंका गया है और

न मालूम क्या क्या !

अब करने को कुछ बचा नहीं है!

अब हम बजाते हैं ताकि कुछ बिक जाए

सुर तो वही हैं और ताल भी

उसे घुमाफिराकर कितना गाएँ, कितना बजाएँ

और वह अपनी आत्मा के खोज में अपने कमरे में बैठकर गाना,

उसका भी तो कोई मतलब नहीं रहा अब

सुर को , आवाज़ को , रंग को , शब्दों को

बाज़ार का सहारा चाहिए।

हम लोग ओपरा में बजाते हैं , इस शहर के सबसे बड़े और पुराने ओपेरा में। हमें कितने पैसे मिलते हैं मालूम है आपको ?

एक नाटक से दूसरे नाटक - उन्हीं सुरों को उलट पुलटकर बजाते रहते हैं हम परदे के पीछे से,

नाचनेवाले उन्हीं पदन्यासों को दोहराते रहते हैं,

अभिनेताओं के मुँह पर वही हँसी होती है, वही आँसू …

सबकुछ हो चुका है! "


समझ में नहीं आता इतनी ऊँचाई से बेचारे पिआनो को फेंकने की क्या ज़रूरत थी ?


दो-तीन घंटों की रिहर्सल के बाद

हम लोगों ने चाय की छुट्टी ली है ,

अब आधा घंटा रिहर्सल हाल के बाहर बीतेगा

हँसी-मज़ाक में , गपशप में।

मेरे सामने मेरा बहुत ही पसंदीदा अभिनेता काफी बना रहा है,

उसकी उम्र होगी कुछ ६२ -६३ साल.

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में से एक,

बारह साल तक पिआनो बजाना सीख रहा था

और बाद में मंच पर एक अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई

उसने आजतक कई किरदार निभाए हैं ,

यूरप के अनेक देशों में अनेक तरह के मंचों पर काम कर चुका है,

उसके क़िस्से उसीकी ज़ुबान से सुनना बड़ा दिलचस्प लगता है।

हंगेरी के थिएटर टूर के बारे में कुछ क़िस्से सुनाने लगा ,

और बातों बातों में बोल पड़ा, " देखो भाई , मंच पर अब नया करने जैसा कुछ नहीं रहा। सबकुछ हो चुका है। शरीर के प्रयोग , आवाज़ के हर तरह के प्रयोग, सबकुछ हम कर चुके हैं। "

उसके बाद हमेशा की तरह मंद सा मुस्काया ,

नयी सिगरेट सुलगाई और फिर एक काफी पीने लगा।



मुझे दो धुंधले-से चित्र दिखाई देते हैं।


एक चित्र में एक विशाल-सी दीर्घा में मैं घूम रहा हूँ,

यह दीर्घा आकार में पृथ्वी जितनी ही है शायद

या उससे भी बड़ी , इस दीर्घा में हज़ारों चित्र टंगे हुए हैं।

मतिस, वैन गाग, रविवर्मा , सतवलकर, गायतोंडे , रेम्ब्रा, कुर्बे और न मालूम कौन कौन

लेकिन ये चित्र काफ़ी ऊपर हैं , एक एक चित्र मेरी पहुँच के बाहर है

उन चित्रों तक पहुँचने के लिए, उनकी बारीकियां देखने के लिए , परखने के लिए

बड़ी जद्दोजहद उठानी पड़ रही है मुझे

साथ ही कहीं दूर से अनगिनत सुर गूंज रहे हैं

रसूलन बाई , सरोद और संतूर की ध्वनि , कुमार , मंसूर , आमिर खां साहब ,

मेहदी हसन , राइनहार्ड मे, मारेक ग्रेहुता और न मालूम किस किसकी आवाज़ें

उन्हें सुनने के लिए समझने के लिए मुझे बड़े प्रयास करने पड़ रहे हैं

लेकिन में हूँ कि रुकने का नाम नहीं ले रहा हूँ



दूसरे चित्र में एक बहुत ही ऊँचा-सा पहाड़ दिखता है

माउंट एवरेस्ट से भी ऊँचा

दुनियाभर के साज़ , और उनपर अनगिनत कैनवास , रंगों के डिब्बे

दुनियाभर के मंच किसीने एक दूसरे पर रखकर यह पहाड़ बनाया है

इस पहाड़ की चोटी स्ट्रैटोस्फीयर से भी ऊपर है

और इस चोटी पर मैं बैठा हूँ , अकेला

अंतरिक्ष में ताकता


समझ में नहीं आता

कौन-सा चित्र सत्य है ?

या कौन-सा सत्य सपना ?



समझ में नहीं आता

आदमी सपने क्यों देखता है ?

आदमी को भला सपने आते ही क्यों है ?


@ Mandar Purandare

Poznań- Nov, 20,2015


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प्रिय मंदार पुरंदरे, प्रणाम; पूरी तरह से डूबकर आपने यह रचना लिखी है, सुन्दर रचना लिखी है; प्रश्न उठाना अच्छी बात है, यह निज राह पर बढ़ने केलिए अनिवार्य है; बधाई, शुभकामनाएं,

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