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सांस्कृतिक नेतृत्व

7 जून 2017

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भारत देश ने लम्बे समय तक विश्वगुरु का पद सुशोभित किया है. एक मनुष्य की तरह एक राष्ट्र भी भौतिक और आत्मिक संयोग से बनता है. और संस्कृति ही एक देश की आत्मा होती है. अनन्त काल से इस उजली आत्मा के बल पर ही भारत देश ने अपने आप को अनेक सांस्कृतिक आक्रमणों के बाद भी जीवित रख है. इस सांस्कृतिक आत्मा को प्रेरित, पोषित और संरक्षित किया है हमारे उन ऋषि मुनियों की अमित प्रज्ञा ने, जिनका स्थान सदा ही शासक से ऊपर रहा. इस देश को सदैव ही, भिन्न-भिन्न रूपों में, ईश्वर की परम सत्ता पर अडिग विश्वास रहा है, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया गया है संस्कारो के माध्यम से. संस्कार ही हमारी सभ्यता के कर्म और अकर्म को परिभाषित करते है. इन्हे अधिकांशतः धार्मिक अथवा अलौकिक कारणों से जोड़ा गया है ताकि व्यर्थ और अर्थहीन विवादों से ऊपर स्थापित किया जा सके.

परन्तु पाश्चात्य के प्रभाव और तेज़ गति की जीवन शैली में ये प्राचीन ज्ञान कही खो सा गया है. हमारा प्रयास है की उन संस्कारों और जीवन जीने के उत्तम तरीकों को एक स्थान पर रख कर फिर से परिचित कराया जाए, जिससे सभी का कल्याण हो. ऐसा प्रयास रहेगा की उन पद्धतियों के मूल में स्थित वैज्ञानिक अथवा मनोवैज्ञानिक कारण अथवा आधार को भी स्पष्ट किया जाए ताकि पाठक या श्रोता को समझने और अपनाने में आसानी हो. ये संस्कार हमें फिर से स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व का सांस्कृतिक नेतृत्व करने में सक्षम करेंगे. आवश्यक है की सीखने या समझने की बजाय आचरण में लाकर ये काम किया जाए ताकि वो प्रभावी ढंग से प्रसारित हो, विशेष कर आने वाली पीढ़ी में. उत्तम जीवन पद्धाति के कुछ अंश इस प्रकार है:

सुबह जल्दी उठना:

आज के समय में अधिकांश बीमारियों का कारण है देर से सोना, देर से उठना और दिन भर अपने सभी कार्यो को व्यवस्थित करने के लिए संघर्ष करते रहना. हमें सूर्योदय से पहले या उसके साथ जगना चाहिए, और पर्याप्त नींद के लिए आठ घंटे पहले सोना चाहिए और इसलिए उससे ३-४ घंटे पहले रात्रिभोज कर लेना चाहिए. ये आवश्यक है एक स्वस्थ पाचन तंत्र, अनिंद्रा से रक्षा, आँखों के दबाव से रक्षा, सुबह की ताज़ी और स्वस्थ हवा, स्वस्थ श्वसन तंत्र और दिन भर की गतिविधियों को नियोजित कर हड़बड़ाहट से बचने के लिए. उगते सूर्य को देखने से दृष्टि और दिमाग को भी बल मिलता है. और सुबह सवेरे पक्षियों की मधुर आवाज़ तो सोने पर सुहागा है. बिलकुल स्वर्ग जैसा!!

Rising Shloka: कराग्रे वसते लक्ष्मीः, करमध्ये सरस्वती ।

करमूले स्थिता गौरी, मंगलं करदर्शनम् ॥

अंगुलियों के पोरों में लक्ष्मी माता का वास है, हथेली में माँ सरस्वती का, कलाइयों में शक्ति स्वरूप गौरी माँ बस्ती है और इसलिए प्रातः काल हाथो का दर्शन मंगलकारी है. ये समझना मुश्किल नहीं की हमारे हाथो में ही हमारी साड़ी शक्ति, क्षमता और सम्भावनाए समाहित है.

ईश्वर और धरती माता को प्रणाम:

जीवित रहना हमारे इच्छा या क्षमता की बात नहीं है, बल्कि हमारी नियति और जीवन चक्र है. इसलिये हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए की हमें एक और दिन मिला है अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए. हमें धरती मात का धन्यवाद करना चाहिए हमें अपने ऊपर धारण करने और हमारा पालन पोषण करने के लिए. अगर ये धरती और प्रकृति ही न हो तो हम जीवित ही नहीं रह सकते, कुछ और कर पाने का तो प्रश्न ही नहीं.

Bhoomi Pranaam Shloka: समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे ॥

है समुद्र के वस्त्रों वाली देवी, जिनके स्तनों सामान पर्वत है जो हमें नदियों, फलों, जड़ी-बूटियों से पोषित करते है, है विष्णु भगवन की पत्नी जो की समस्त विश्व के पालक पिता है, मुझे क्षमा करें की में आप को अपने पैरो से छूता हूँ.

परिवार का अभिवादन:

बड़ों को पैर छूकर प्रणाम करना और अन्य को हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हुए सुप्रभात, जय श्री कृष्णा, हरी ओम या कोई अन्य अभिवादन करना जो परिवार में प्रचलित हो. ऐसा करने से परिवार में और सम्बन्धो में ख़ुशी और ताज़गी कर संचार होता है. परिवार के छोटे मोटे विवाद और बहस इस छोटी सी आदत से बिना प्रयास के सुलझ सकते है. और दीर्घ काल में ये आदत बच्चों में भी विकसित हो जाती है.

ये एक अवसर भी है हमारी सांस्कृतिक जड़ो को मज़बूत करने का. हमें हमेशा प्रयास करना चाहिए की अपने परिवार और मित्रों के साथ अधिक से अधिक अपनी मातृ भाषा, प्रादेशिक भाषा, या बोली में बात करे. ये बिलकुल स्पष्ट है की भाषा अपने साथ संस्कृति को ले कर चलती है और बढाती है. भाषा भूलना या खो देना सांस्कृतिक ह्रास का कारण बनता है और कोई भाषा अपनाने से हम उसकी संस्कृति को भी जाने अनजाने अपना लेते है. अंग्रेजी का हमारी जीवन में प्रभाव किसी से छिपा नहीं है.

स्वछता:

संस्कृत या हिंदी के शब्द शौच का शाब्दिक अर्थ होता है शारीरिक और मानसिक मल या मैल को बाहर फेक कर स्वच्छ और स्वस्थ रहना. शारीरिक स्वछता स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत आवश्यक है और इसी से हमारी मानसिक क्षमताएँ भी प्रभावित होती है. आँखें, नाक, गाला बाल, नाखून और अन्य सभी अंगो की पूर्ण साफ़ सफाई पर नियमित ध्यान देना चाहिए. बढ़ते प्रदूषण के युग में बीमारियों से बचने के लिए स्वछता को महत्त्व और बढ़ गया है.

ऐसा कहा जाता है की वात या gas से पीड़ित कोई भी इंसान मानसिक रूप से संतुलित नहीं होता है अतः उसकी किसी बात को मान नहीं जा सकता. इसलिए सुबह सर्वप्रथम पेट साफ़ करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है. वैज्ञानिक रूप से भी पेट साफ़ न होने या इसमें देरी करने से वात, बदहज़मी, जलन, इन्फेक्शन, आंत के छाले, छाती में दर्द जैसी करी बीमारियाँ हो जाती है.

Bathing Shloka: गङ्गेच यमुने चैव गोदावरी सरस्वति ।

नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु ॥

हे पवित्र नदियों, हे गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु और कावेरी, मेरे स्नान के जल में समाहित होकर इसे पवित्र कीजिये. इन सभी पावन नदियों में उपस्थित जड़ी बूटियों के सत्त्व को याद कर पवित्र जल से नहाकर स्वस्थ रहने की हम कामना करते है.

व्यायाम:

योग हो या एरोबिक्स या वेट लिफ्टिंग या पावर योग या नृत्य या तैराकी या साइकिलिंग, हमें नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए. सूर्यनमस्कार अपने आप में सम्पूर्ण देह के लिए एक व्यायाम है जो शरीर के साथ हमारे बौद्धिक और दैविक विकास में भी सहायक है. सूर्यनमस्कार की सही मुद्राओं और विधि का ज्ञान आवश्यक है जिसे किसी विशेषज्ञ योग गुरु या प्रशिक्षक या इंटरनेट से सीखा जा सकता है.

स्वछता के साथ, हमें एक स्वस्थ, सुदृढ़ और सक्षम देह की आवश्यकता होती है अपनी और समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए. और ये अधिक महत्पूर्ण हो जाता है जब की हम पहले ही आरामदेह जीवन शैली, कुर्सी पर बैठे रहने की आदत या मज़बूरी, कंप्यूटर या स्मार्टफोन पर गाड़ी आँखों और शारीरिक श्रम के अभाव के जाल में फस चुके है. १५ से ३० मिनट प्रतिदिन का व्यायाम हमें कोलेस्ट्रॉल, अनियमित रक्तचाप, मधुमेह, सर्दी ज़ुकाम जैसी बीमारियों से दूर रखेगा.

Deh Shloka: शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्

ये शारीर ही सभी अच्छे कर्मो का साधन हे अतः इसका संरक्षण और पोषण आवश्यक है.

प्रार्थना करना:

शौच और स्नान के तुरंत बाद और भोजन या कलेवा या नाश्ता करने से पहले हमें प्रार्थना करनी चाहिए. हमें अपने हर भोजन के लिए धरती मात और ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिए. प्रार्थना की आदत नियमित होनी चाहिए और हमारे दैनिक जीवन का अटूट हिस्सा. प्रार्थना बहुत कारगर होती हे हमें चिंता मुक्त करने के लिए क्युकी अन्य सभी परेशानियों से अलग हमारा मन शांत हो जाता है.

शंख या घंटी बजाना हमारे घर में दैवी प्रभाव और सकारात्मकता लात है. ये हमारे मस्तिष्क के लिए जितना आनंद और शांति दायक है, छोटे जीवो और कीटाणुओं के लिए उतना ही घातक. इनकी लम्बी और तेज ध्वनि कीटों और कीटाणुओं के लिए असह्य होती है और घर में उनका आना काम कर देती है.

हमें अग्रेज़ी ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ अपने पारम्परिक कैलेंडर का ध्यान रखना चाहिए जैसे की विक्रम संवत पंचांग. प्रार्थना अगर परिवार के साथ संभव न हो पाए तो हमें कम से कम सप्ताह में एक बार और विशेष कर त्योहारों पर आस पास के किसी धार्मिक स्थल पर जाना चाहिए. आज के समय में जब एकल परिवारों में परम्पराओ की जानकारी और maanyata कम हो rahi है, इंटरनेट हमारी बहुत मदद कर सकता है. वहाँ पर कई websites है जो पंचांग और त्योहारों की विस्तृत जानकारी देती है, जैसे द्रिकपञ्चाङ्ग.com

Welfare Shloka: ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

है प्रभु, हमें असत्य रुपी सांसारिक माया से परम सत्य के आत्मिक अनुभूति तक ले जाएँ, हमें अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और ले जाएँ, हमें मृत्यु के भय से परम तत्व के एकाकार होने की अमरता की और ले जाएँ. इच्छा या अनिच्छा से हम रजोगुण यानि स्वार्थ परक जीवन यापन और तमोगुण यानि विध्वंसक चेष्टा की और जाने से बचें और सतोगुण यानि निस्वार्थ लोक कल्याण और भगवत्प्राप्ति की और बढ़ें.

भोजन करना:

हर भोजन जो हम ग्रहण करते हैं उसे भगवान का प्रसाद का प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए और इसलिए उसका आदर करना चाहिए और एक अंश भी जूठा नहीं छोड़ना चाहिए. यानि हमें अपनी भूख से अधिक भोजन नहीं लेना चाहिए और जो लिया है उसे जूठा नहीं छोड़ना चाहिए. भोजन से पहले भोजन मन्त्र का पाठ करना एक अच्छी आदत है जिसके द्वारा हम ईश्वर की प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं और अपने शारीर के पोषण के लिए आदर पूर्वक प्रसाद ग्रहण करते है.

प्रयास करना चाहिए की भोजन पुरे परिवार के साथ किया जाए. आँगन में सुखासन में बैठकर हाथो से किया भोजन ऊर्जा का संचार करता है औे हमें पोषित करता है. सुपाच्य और ताज पका हुआ भोजन करना चाहिए जो दो घंटे से अधिक पहले बन हुआ न हो. सामने के दाँतों से काट कर किया जाने वाला भोजन कम करना चाहिए, क्योकि उससे धीरे धीरे हमारे जबड़े हिंसक पशुओं जैसे होने लगते है. भोजन हमारे लिए सुखद, स्वादिष्ट, मनभावन, और रसीला होना चाहिए न की रूखा सूखा और चिकनाई रहित. अधिक भोजन करने और जूठा छोड़ने से हमेशा बचना चाहिए. भोजन में अन्न देवता का वास मान गया है और भोजन बाँटना अपने आप में पूण्य है.

Bhojan Shloka: ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

समर्पण भी ब्रह्म है, समर्पित भी ब्रह्म है, साधन भी ब्रह्म है और जठराग्नि भी ब्रह्म है. जो हर कर्म में ब्रह्म को देखता है उसे ब्रह्म प्राप्य है.

बड़ो और गुरुओ का सम्मान करना:

जन्म से ही हम शारीरिक और मानसिक रूप से दूसरों पर निर्भर होते है. कोई हमेशा हमारी देख भाल करता है और हमें अपने पैरो पर खड़ा होने के योग्य बनता है. ये हमारे बड़े है जो इस समाज का अंग है और जो एक सक्षम इंसान बनने में हमारा मार्गदर्शन करते है. अतः हमें सभी बड़ो का सम्मान करना चाहिए जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे जीवन के प्रति विविध योगदान करते है. हमें ये भी याद रखना चाहिए की जीवन चक्र में हम स्वयं भी उस अवस्था में पहुंचेंगे और तब हम भी अपने छोटों से आदर, सम्मान और धन्यवाद की अपेक्षा रखेंगे.

हम हर रोज़ बहुत सी चीज़े सीखते है, हर उस इंसान से जो योग्यता, क्षमता, अनुभव या ज्ञान में हम से बेहतर है. और वो सभी हमारे लिए गुरु हैं. गुरु वो है जो हमें अज्ञान रूपी अंधकार के चंगुल से निकल कर ज्ञान रूपी प्रकाश की और अग्रसर करता है. गुरु निस्वार्थ भावना से अपनी बुद्धि और अनुभव हमें दान करता है. इसीलिए हमारे जीवन में गुरु का सर्वोच्च पद और सम्मान है.

Guru Vandana Shloka: गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥

गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही महेश्वर है. गुरु ही साक्षात् परम ब्रह्म है इसलिए गुरु को नमन है. गुरु के उपकार से ही हम इस संसार और ईश्वर को जान पाते हैं इसलिए उनका स्थान ईश्वर से भी ऊपर बताया गया है.

सामाजिक व्यवहार:

हमें सभी प्राणियों को अपने सामान समझना चाहिए, चाहे उनका आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, राजनितिक, धार्मिक स्तर जो भी हो, क्योकि आत्मा तो सभी में उस एक परमात्मा का अंश ही है. हमें किसी का अपमान या हानि नहीं करनी चाहिए. विशेष कर गाली-गलौज करना बेहद संक्रामक, प्रतिक्रियात्मक, हिंसक, कामुक और महिला विरोधी होती है. हमें हमेशा एक सुखद व्यक्तित्व बनने का प्रयास करना चाहिए जिससे हम उस दैवी व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व कर सकें जो जिसका हम अंश है.

Harmony Shloka: समानी व आकूतिः समाना हृदयानि व:।

समानवस्तु वो मनो यथा वः ससुहासति।।

हमारे ह्रदय, बुद्धि और विचार एक हो ताकि हम संगठित होकर सहयोग द्वारा अपने समग्र उद्देश्य को प्राप्त कर सकें. समाज में रहते हुए अकेले और अलग रहना या विरोध और विवादों में जीना अपनी शक्ति और क्षमता का हनन करने जैसा है. सौहार्द से ही सम्पूर्ण समाज का इच्छित विकास संभव है.

अभिवादन:

हमें अपने आस पास सभी लोगो को परमपरिक तरीकों से अभिवादन करने की आदत डालनी चाहिए जैसे नमस्कार और प्रणाम. हमें अपनी संस्कृति और संस्कारो का सदैव साथ लेकर चलना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे जापानी लोग विश्व में कही भी किसी को भी अपने पारम्परिक तरीके से अभिवादन करते है और ऐसे कई उदहारण देखे जा सकते है. वैसे भी नमस्कार और प्रणाम हाथ मिलाने के तरीके से कही अधिक नम्र, सुरक्षित और स्वच्छ है.

और बहुत अच्छा हो अगर हम हर संभव अवसर पर अपनी संस्कृति और उसके सन्देश का प्रचार प्रसार करें. जैसे गृह प्रवेश, जन्मदिन, विवाह और विवाह की वर्षगाँठ जैसे अवसर धार्मिक स्थलों, गौशाला, पुरातन स्थलों पर पारम्परिक तरीकों से स्वदेशी वेशभूषा में मनाना और सांस्कृतिक या नैतिक सन्देश वाले उपहार देना जैसे की पंचगव्य से बने उत्पाद. परिवर्तन जैसा भी हो अगर हमें उस पर गर्व है तो फैशन बनने में देर नहीं लगती.

समाज सेवा:

समाज की एक इकाई होने के नाते हम समाज से बहुत कुछ पाते है और इसीलिए हमारा दायित्व है अपनी क्षमता के अनुसार समाज को वापस लौटने का. हमें कुछ न कुछ समाज सेवा करनी चाहिए अपनी आर्थिक, शारीरिक और बौद्धिक क्षमताओं के साथ. सेवा के द्वारा ही हम बेहतर उत्तम इंसान बनते है और ये हमें कृतज्ञता और विनम्रता भी देती है. सेवा को मूल है दूसरों की सहायता करने की इच्छा. जब हम दूसरों की सेवा करने की क्षमता, इच्छा और आदत अपने व्यवहार में लाते है तभी हम आगे आने वाली पीढ़ी को इसके लिए प्रेरित कर पाते है. सेवा की जा सकती है पर्यावरण, जीवों, वातावरण, देश, बच्चों, अनाथों, गरीबों, बूढ़ों, जागरूकता आदि के लिए.

स्वाध्याय:

कोई भी इंसान जो बौद्धिक उन्नति चाहता हो उसके लिए स्वाध्याय बहुत आवश्यक है और ये सभी को करना चाहिए. किताबें गुरु के सामान एक बहुत अच्छी और जरुरी मार्गदर्शक बन सकती है. एक तरह से देखे तो किताबें अमर, सतत और हमेशा साथ रहने वाली साथी है. ये आवश्यक है की एक सच्चा, निष्पक्ष, ज्ञानी और किसी भी पूर्वाग्रह से रहित पथ प्रदर्शक हो अतः पुस्तक का चुनाव भी बहुत सजगता से करना चाहिए. प्राचीन विद्वता से युक्त किताबो पर सर्वथा निस्संदेह विश्वास किया जा सकता है जैसे की वेद, पुराण, उपनिषद, श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, श्रीरामचरितमानस इत्यादि. कोई भी किताब उसके लेख क के मस्तिष्क के सामान होती है इसलिए किताब चुनते समय लेखक का विश्लेषण कर लेना चाहिए.

स्वधर्म निर्वाह:

हम में से हर एक, चाहे वो विद्यार्थी हो या श्रमिक और गृहिणी हो या प्रधान मंत्री, का एक धर्म या दायित्व है जो हमें सौपा गया है. धर्म शब्द का अर्थ कभी भी पंथ या पूजा पद्धति या परम्पराओ या पहनावे या ईश्वर के स्वरुप और विश्वास से नहीं लगाना चाहिए. धर्म का अर्थ है हमारा समाज में किरदार. हमें अपने धर्म का निर्वाह पूरी श्रद्धा, समर्पण के साथ, किसी लालच के बिना और कर्म के सिद्धांत में पुरे विश्वास के साथ करना चाहिए.

जीवन के उद्देश्य को अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष के रूप में परिभाषित किया गया है. यानि जीवन यापन, वंश वर्धन, दायित्व निर्वाह और ईश्वर से आत्मा का मिलान. इसी श्रृंखला में जीवन के चार आश्रम बताये गए है जो है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास. इसी से हर एक मनुष्य को अपने जीवन की दिशा मिलती है.

ईश्वर और नियति में कर्म फल के प्रति विश्वास रखते हुए हमें अनासक्त रह कर हमें अपने धर्म निर्वाह से शान्ति और संतुष्टि मिलती है. इसी को सफलता या मोक्ष भी कहा जा सकता है.

Karma Shloka: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

कर्म करने में हमारा अधिकार है और हमें फल की इच्छा या कामना या आसक्ति के बिना कर्म करते रहना चाहिए.

सकारात्मकता:

चूँकि जीवन का अर्थ ही धर्म का निर्वाह है और फल में हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए, अतः हमें सदैव हर परिस्थिति में सकारात्मक रहना चाहिए और सकारात्मक कार्य करने चाहिए. हताशा, चिढ, शिकायत या निराशा से वैसे भी कुछ नहीं बदलता. इसलिए हमें नकारात्मकता के प्रति अपनी शारीरिक या मानसिक ऊर्जा को व्यर्थ नहीं करना चाहिए. कई बार ऐसी परिस्थितियां बन जाती है कि न चाहते हुए भी हम नकारात्मकता के कुचक्र में फस जाते है इसलिए हमें स्वयं को सदैव सतर्क रखने कि आवश्यकता है. हमें सदा याद रखना चाहिए कि कोई भी परिस्थिति ईश्वर कि क्षमता, इच्छा और व्यवस्था से बड़ी नहीं हो सकती और इसलिए अपने मस्तिष्क पर अत्यधिक भर लेने का कोई औचित्य नहीं.

Positivity Shloka: ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाग्‍ँसस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायूः।

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अंत में मेरा सभी से निवेदन है कि उपरोक्त सुझावों को सम्प्रदाय विशेष से न जोड़कर इनके समष्टि उद्देश्य और अर्थ को समझे. श्लोको का अर्थ समझने के लिए कभी भी किसी पूर्वाग्रह से ऊपर उठ कर उनके वैश्विक सन्दर्भ में देखना चाहिए. किसी भी संशय के निवारण के लिए किसी विशेषज्ञ कि सलाह ले न कि अनर्थकारी दिशाहीन अभिप्राय निकाले. अच्छी, स्वस्थ, पर्यावरण अनुकूल और प्राकृतिक रूप से निर्वाह योग्य जीवन ही हम सभी का प्रयोजन है.

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