-सत्य को समझें नही
सत्य की राह से भटक रहा है,
सत्य की खोज को मुकर रहा है।
चकाचौंध में भेंड़चाल चल रहा है,
जीवन क्या है!नहीं समझ रहा है।
रिश्तों को भी नोटों से गिन रहा है,
अपनों को पराया समझ रहा है।
पराए अपने अपने कहता सबसे
उल्लू अपना सीधा कर रहा है।
अपनी ही करनी से अनजान बना
अपने ही बंधन में उलझ रहा है।
स्वयं को खरा सोना कहता फिरे
दोष अपने भी दूसरे सिर मढ़ रहा है।
सत्य को समझ नहीं पाया जब ही तो
संसार चक्र में ही भटक रहा है।
चल रही है हलचल अंदर अनेक,
बाहरी मुस्कान बिखेर रहा है।
चला रहा सृष्टि मलिक अपने हिसाब से,
फिर भी खुद को भगवान समझ रहा है।
-सीमा गुप्ता, अलवर राजस्थान