भाषाओँ के बारे में एक बात प्रचलित है कि जिन भाषाओँ में समय सापेक्ष परिवर्तन नहीं हुआ वे भाषाएं या तो विलुप्त हो गयी या विलुप्ति के कगार पर है । वैश्वीकरण ने तो इस समस्या को और भी जटिल बना दिया है । वैश्वीकरण की प्रक्रिया के आगमन के साथ ही सबसे जुड़ने के लिए तथा सदा- सर्वत्र समान अवसर की तलाश में लोग नित नई भाषाएं सीख रहे हैं, उनका प्रयोग कर रह हैं । इस क्रम में आज भारत में यदि किसी भाषा के प्रति लोगों का मोह बढ़ा है तो वह है अंग्रेजी भाषा । हम चाहे जितने भी तर्क दे लें पर यह तथ्य किसी से भी छुपा नहीं है कि अंग्रेजी की मोह में अधिकांश भारतीय भाषाओँ में अच्छा खासा परिवर्तन होता जा रहा है । यह परिवर्तन अच्छे की ओर तो कतई इशारा नहीं करती । कुछ शोधों में यह भी बात पता लगी है कि अगले दस से बीस वर्षों में विश्व की अधिकांश भाषाएं या तो पूर्णतः बदल जाएंगीं या विलुप्त हो जाएंगी । बदलाव से मेरा तात्पर्य है अपने आप में अंग्रेजी के शब्दों को कुछ इस प्रकार से आत्मसात कर लेंगीं कि शायद उनमें सहायक क्रियाओं एवं कुछ एक अवयव के अतिरिक्त अपना कुछ न बचे। हो सकता है कि लिपि बच भी जाए पर उनकी प्रकृति बदल ही जाएगी । इन भाषाओँ के ख़त्म होने या विलुप्त होने के पीछे अन्य किसी का नहीं वरन इन भाषाओं के भाषा भाषी ही जिम्मेदार होंगे ।
भारत एक विशाल भूखंड में विभिन्न भाषा-भाषी राज्यों एवं संस्कृति में सारोबार एक ऐसा देश है जिसमें समूचे विश्व का कुछ-न-कुछ झलक अवश्य दिखता है। यही विविधता इस विशेष बनाती है तथा इन्ही विशेषताओं के कारण आक्रमणकारियों एवं व्यापारियों का ध्यान सदा ही भारत पर रहा है । वर्तमान समय में आक्रमणकारियों का भय तो नहीं है पर व्यापारियों का सतत आगमन चल रहा है तथा चलता ही रहेगा । यह भी कहा जाता है कि किसी भी भाषा का प्रचलन एवं जीवन प्रशासक की मंशा पर निर्भर करता है । प्रशासक के अतिरिक्त व्यापारी एवं व्यापार भी किसी स्थान की भाषा को बहुत हद तक प्रभावित करती है । सरकारी कार्यालयों में कामकाज की भाषा के रूप में हिंदी को भारत की राजभाषा माना गया है। अधिकांश जनसंख्या द्वारा हिंदी के इस्तेमाल के कारण अघोषित रूप से इसे भारत की राष्ट्र भाषा भी कहा जाता है पर एक तथ्य यह भी है कि अघोषित, व्यापारिक एवं प्रशासक वर्ग की मंशा के अनुरूप अंग्रेजी का ही वर्चस्व है तथा यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं होता कि शनै- शनै अंग्रेजी भारत की राष्ट्रभाषा बनने की ओर अग्रसर होती जा रही है । यहाँ भी यह कहना लाजिमी होगा कि इस दुर्दशा के पीछे अन्य कोई नहीं वरन हिंदी जन ही विशेष रूप से जिम्मेदार हैं । उनकी उपेक्षा एवं उदासीनता के कारण अब धीरे धीरे हिंदी हाशिये पर आती जा रही है । हिंदी के इस हाशिये पर आने के कारणों की यदि विवेचना की जाए तो न जाने कितने कारण परिलक्षित होंगी । इन कारणों में सबसे बड़ा कारण है "शब्द"। जी हाँ, आपने सही पढ़ा । शब्द को बर्ह्म माना जाता है, और हिंदी के रसातल एवं विलुप्तता के पीछे या शब्द ही प्रमुख घटक हैं । शब्द के संयोग्य से वाक्य बनता है तथा वाक्य बढ़कर वार्ता, साहित्य एवं भाषा का रूप लेती है । यह देखा गया है कि अंग्रेजी का शब्दकोष 'ऑक्सफोर्ड' हर वर्ष न जाने कितने शब्दों को अपने आप में समाहित कर स्वयं एवं अंग्रेजी भाषा को समृद्ध करता जा रहा है । हमारे देश के रसगुल्ला जैसे न जाने कितने मीठे शब्दों को ऑक्सफोर्ड ने स्वयं में समाहित कर लिया है । अंग्रेजी भाषा की समृद्धि के प्रशासकीय एवं व्यापारिक मंशा के अतिरिक्त यह भी एक महत्वपूर्ण आधार है कि निर्विवाद रूप से धीरे- धीरे अंग्रेजी हम भारतीयों के नस- नस में समाहित होती चली जा रही है । इसके इतर जब हमारे भारतीय भाषाओँ विशेषकर हिंदी को समृद्ध करने की बात आती है तो न जाने कितने विद्व जन आगे बढ़कर आम प्रचलन के प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओँ में समाहित करने की वकालत करने लगते हैं । अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर उस समय एक गरमा-गरम बहस छिड़ गई जब भारत सरकार के राजभाषा विभाग के किसी अधिकारी ने ऐसे ही अंग्रेजी के आसान शब्दों को हिंदी के शब्दकोष में समाहित करने की वकालत कर डाली। उनका तर्क या था कि अंग्रेजी का एग्जिट(EXIT) शब्द सुनने में कितना मधुर एवं सार्थक भाव प्रकट करता है जबकि इसके लिए विभिन्न हिन्दुस्तानी शब्द सही भाव अभिव्यक्त नहीं कर पाते है लिहाजा ऐसे शब्दों को हिंदी के शब्दकोष में समाहित कर हिंदी का विकास किया जा सकता है । उन्होंने किसी भारतीय उपभोक्ता सामन बनाने वाली कंपनी के उत्पादों के विज्ञापन का भी उदाहरण दिया था जिसमें एक आध शब्द के अतिरिक्त अधिकांश शब्द अंग्रेजी के लिए गए हैं जिन्हें हिंदी में बोला जा रहा है । उनके इस मंतव्य का खूब विरोध भी हुआ ।
भारत में राजभाषा अधिनियम के निर्माण के साथ ही विभिन विषयों के साहित्य एवं पुस्तकों के अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई । इस प्रक्रिया में बहुत सारे उत्साही लोगों ने अपने अनुसार अंग्रेजी शब्दों का हिंदी में अनुवाद करना प्रारम्भ किया जिसके कारण कई स्थानों में अनुवाद में प्राप्त शब्द हस्यास्मक बनते गए । इस विसम स्थिति से निपटारे के लिए शब्दों को समरूप भाव का मानक निर्धारित करने एवं एकरूपता बनाये रखने के लिए वैज्ञानिक, प्रशासनिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के गठन की आवश्यकता हुई जिसका कार्य विभिन्न शब्दों का एक मानक निर्धारित करना था । शब्दावली आयोग के गठन के पश्चात क्रमशः शब्द निर्धारण में एकरूपता आने लगी पर हमारी हीन भावनाग्रस्त मानसिकता के कारण हमने हिंदी छोड़ अपना रुख अंग्रेजी की ओर बढ़ाना प्रारम्भ किया जिसका फल यह हुआ कि हिंदी अब हिंगलिश हो गई है । आये दिन छपने वाले समाचार पत्रों को देखें या फिर विज्ञापनों को देखें, हर जगह हिंगलिश का ही भरमार दिखाई देगा ।
हालाँकि भारत सरकार का राजभाषा विभाग इस बात पर बल देता है कि प्रशासनिक कार्यों के लिए अंग्रेजी से हिंदी में आसान अनुवाद या फिर हिंदी के आसान रूप का प्रयोग किया जाए । ठीक भी है कि हिंदी के आसान रूप के प्रयोग से ही इसे जन- जन की भाषा बनाई जा सकती है । जन- जन की भाषा बनाने के लिए सबसे पहले इसके शब्दकोष को समृद्ध करना होगा तथा शब्दकोश को सर्वग्राह्य बनाने के लिए हमें आसान शब्दों के प्रयोग पर बल देना होगा ताकि हिंदीतर भाषी वर्ग के लोगों को भी इसके उच्चारण में कोई विशेष सुविधा न हो । दूसरा हमें अंग्रेजी को नहीं वरन भारत के समस्त राज्यों के क्षेत्रीय भाषा को ध्यान में रखते हुए उनमें से आसान शब्दों के विकल्प को स्वीकार करना होगा तथा उन्हें अपने शब्दकोष में स्थान देना होगा ।
"हिन्दी में यदि आँचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है, जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है।" - श्री विद्यानिवास मिश्र
हम रोज ही न जाने कितने लोगों के संपर्क में आते हैं, कितने प्रकार के मिश्रित हिंदी का प्रयोग होता हुआ देखते हैं । इस मिश्रित हिंदी में से समुचित शब्दों का चयन कर उनका प्रचलन आसान करने का प्रयास करना होगा । विद्वानों का मत है कि रोज ही न जाने कितने शब्दों का निर्माण होता है, पर इनमें से कुछ ही शब्द चल पाते हैं, जो चल नहीं पाते वे बीच सफर में ही दम तोड़ देते हैं और फिर मिट जाते हैं। आसान शब्दों की तलाश में विभिन्न प्रकार क विज्ञापनों एवं संचार माध्यमों में झाँकने के प्रयास में मुझे रोज न जाने कितने नए शब्द मिलते मिलते रहते हैं और न जाने कितने आगे मिलते जाएंगे ।
आसान शब्दों की तलाश में अपने सफर के दौरान मैं यह प्रयास करता रहता हूँ कि आम प्रचलन में क्षेत्रीय भाषा के जो आसान शब्द मिलें उन्हें नोट कर सूचीबद्ध करता जाऊं । इस प्रयास में ढेरों सारे अभूतपूर्व शब्दों से परिचय हुआ । वर्तमान में कलकत्ता शहर में निवास कर रहा हूँ । आते जाते पहला शब्द जिसने मुझे इस दिशा में प्रयास करने के लिए उत्साहित किया वह शब्द है । 'बसोपेक्षा' यह शब्द बँगला भाषा में बस स्टॉप के लिए प्रयुक्त हुआ था । इस शब्द की सरलता एवं इसका माधुर्य कुछ ऐसा है कि मुझे यह कहते हुए कतई संदेह नहीं होता कि इस शब्द को हिंदी में भी प्रयोग किया जाए । कुछ दिनों तक अटपटा लग सकता है पर सतत प्रयोग इसे क्रमशः स्वीकृति दे ही देगी । इसी क्रम में मुझे जूते की दूकान में एक शब्द मिला "चरणालय"। हालाँकि यह शब्द हिंदी भाषा के अनुरूप अधिक सटीक न लगे क्योंकि हिंदी में पादुकालय का यदा कदा प्रयोग होता है पर यह शब्द भी कहीं कम नहीं है। इसी क्रम में एक अन्य शब्द मिला क्विज प्रतियोगिता के लिए एक बैनर में बँगला में "बुद्धि युद्ध" शब्द का प्रयोग किया गया था । यह भी नहीं कि यह शब्द मात्र एक ही बैनर में छपा हो, यह शब्द कई स्थानों पर बैनर में प्रयुक्त किया गया है। इसी प्रकार एक और शब्द है 'कामाई' जिसका अर्थ है नुकसान होना । मैंने गुजरात प्रान्त में रिश्वत के लिए 'व्यवहार', सम्बन्ध विच्छेद के लिए 'राजीनामा' तो महाराष्ट्र में एम्बुलेंस के लिए 'रुग्णवाहिका' का प्रयोग एवं प्रचलन देखा है । ऐसे न जाने कितने शब्द हैं जो एक प्रान्त विशेष में वहां के भाषा-भाषी अपनी क्षेत्रीय भाषा के शब्दों को बोलचाल की भाषा में धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं ।
क्षेत्रीय भाषाओँ में प्रयुक्त किये जा रहे इन आसान शब्दों के विवरण को हिंदी में शामिल कर प्रयोग करने की मंशा से इन शब्दों को कई ग्यानी एवं विद्वान मित्रों से तथा सोशल मीडिया के कई बुद्धिजीवियों के मंच पर साझा भी किया । पर वही हुआ जिसका मुझे अंदेशा था । अधिकांश विद्वानों ने इन शब्दों के प्रयोग को एक सिरे से यह कहते हुए नकार दिया कि शब्द कुछ अटपटा सा लग रहा है । मैंने जब उनसे इन्हीं शब्दों के अंग्रेजी प्रचलित नामों अथवा अर्थों के बारे में चर्चा किया तो विभिन्न विद्वानों ने उन शब्दों का भिन्न- भिन्न अर्थ बताया । कुछ ने तो दिए गए शब्दों के लिए प्रचलित अंग्रेजी के शब्दों को ही प्रयोग करने की सलाह दी । मेरे यह पूछने पर कि क्या अंग्रेजी के शब्दों के स्थान पर शुद्ध भारतीय भाषा के आसान शब्दों को हिंदी में समाहित करने में कोई अड़चन है? पर इस पर किसी से भी संतोषजनक उत्तर न मिल सका । अब चूँकि विद्वानों की महफ़िल है तथा कोई भी विद्वान अपनी विद्वता के आगे दूसरे की कहाँ सुनता है या चलने देता है, बस इसी परिपाटी के कारण कई विद्वानों ने हिंदी के अशुद्ध होने की बात कहकर एक सिरे से इस प्रकार के प्रयोग को नकार दिया । मैंने उनसे जब यह पूछा कि धड़ल्ले से हो रहे हिंगलिश के प्रयोग के कारण हिंदी में जो विकृति पैदा हो रही है तथा हिंदी का वजूद लगभग मिटने की कगार पर पहुँच रहा है, तो किसी के पास सही तर्क नहीं था अपितु कुतर्कों के माध्यम से अपनी बात को सही साबित करने का प्रयास लगभग हर विद्वान ने किया । आसान हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ के शब्दों को अंगीकृत करने के भारत सरकार के अनुदेशों का हवाला देने के पश्चात भी उनकी सोच में कोई विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ ।
भारत के विभिन्न राज्यों में अपने प्रवास के दौरान वहां के स्थानीय जनता से अपने बातचीत के दौरान मैंने यह पाया कि कई स्थानों पर लोग हिंदी न जानते हुए भी हमसे हिंदी में बात करने का प्रयास करते तथा सही हिंदी के शब्दों की जानकारी न होने के कारण अपनी भाषा के शब्दों को हिंदी में जोड़कर अपनी बात पूरी करने का प्रयास करते । और अपनी बात समझाने में सफल भी हो जाते थे । इसी रूप में हिन्दीतर राज्यों में लोग अपनी भाषा और हिंदी के मिले जुले स्वरुप का प्रयोग कर बातचीत कर अपना हर कार्य पूरा कर लेते हैं । अब बस हम इस प्रकार से हिंदी भाषा में तमाम क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रचलित शब्द जिनका हिंदी के बोलचाल में धड़ल्ले से प्रयोग होता है उन्हें यदि आधिकारिक रूप से अपने शब्दकोष में स्थान दें या लिखित रूप में भी उनका प्रयोग करना प्रारम्भ करें तो हिंदी भाषा की समृद्धि और भी बढ़ती जाएगी तथा हिन्दलिश होती हिंदी को काम से काम नई धारा की और मोड़कर भारतीय स्वरुप देने में कामयाब हो पाएंगे तथा इस प्रयास में विभिन्न प्रांतों में भी आसान हिंदी के प्रचलन को बल मिलेगा तथा यह और भी अधिक सर्वग्राह्य बन पाएगी ।