बंगाल की मूर्ति कला
बंगाल
प्रवास के दौरान मैंने एक चीज देखा । यहाँ के लोग प्रखर बुद्धि के तो होते ही हैं , साथ ही कला के
क्षेत्र से भी इनका विशेष लगाव होता है । हर घर में लोग किसी ना किसी प्रकार की
कला का प्रशिक्षण लेते हुए देखे जा सकते हैं , चाहे वह गीत-संगीत का हो
या फिर वास्तु एवं चित्रकला का हो । वास्तुकला के क्षेत्र में भी प्रकृति से जुड़कर
चीजें बनाई जाती हैं । लगभग हर माह ही किसी ना किसी देवी या देवता की पूजा का
अनुष्ठान होते हुए देखा जा सकता है । पश्चिम बंगाल के दुर्गा पूजा , काली पूजा एवं
जगद्धात्री पूजा का तो विदेशों में भी अच्छा नाम है । विदेशों से लोग छुट्टियाँ
लेकर इसमें शामिल होने के लिए आते हैं । मूर्ति की स्थापना के लिए विभिन्न प्रकार
के दृश्यों से समाहित आधुनिक पंडाल बनाए जाते हैं , बाहर से देखने पर ये
पंडाल असल के भवन जैसे दिखते हैं । इन भवनों में स्थापित किए गए मूर्ति का अपना
अलग ही सौंदर्य होता है ।
मूर्ति बनाने के लिए
प्रकृति से जुड़ी हुई समस्त वस्तुओं का प्रयोग किया जाया है , ताकि नदियों में
उनके विसर्जन के पश्चात किसी प्रकार का जलीय प्रदूषण ना फैले । सबसे पहले बांस की
खप्पचियों को तराशा जाता है । तराशने के बाद बनाई जाने वाले आकृति की लंबाई चौड़ाई
के अनुरूप इन खपच्चियों को आपस में जोड़कर एक स्टेंड बनाया जाता है । यह स्टेंड ही
आधार होता है मूर्ति को संभाले रखने का । स्टेंड तैयार हो जाने के बाद पुवाल लेकर
अलग से ढांचा बनाया जाता है । यह ढांचा एक प्रकार से बनाई जाने वाले आकृति का
कंकाल माना जा सकता है । इसके लिए पुवाल को इकठ्ठा कर उसपर रस्सियों की कई परत
लपेटी जाती है । सामान्य सी आकृत के निर्माण के बाद इसे प्रारम्भिक ढांचे को बांस
के इस स्टेंड पर स्थापित किया जाता है । यहाँ से कलाकर की असली प्रतिभा प्रदर्शन
का समय आता है । इस प्रारम्भिक ढांचे से लेकर अंतिम रूप देने तक कलाकार की
काल्पनिकता बहुत काम आती है ।
इन प्रारम्भिक आकृति के निर्माण के बाद हाथों की
दशा एवं दिशा , पैर की स्थिति
जैसे कि बैठने की मुद्रा या चलायमान मुद्रा या अन्य कुछ । इस प्रारम्भिक प्रक्रिया
में लगभग एक सप्ताह लग जाता है ।अगले चरण में शिल्पकार इस ढांचे पर मिट्टी की परत
लगता है । मिट्टी की परत के लिए भी विशेष प्रकार की मिट्टी का प्रयोग किया जाता है
। नदियों से निकाली काली मिट्टी इस कार्य के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है । मिट्टी
लाने के बाद विशेष प्रकार से सफाई एवं
गुड़ाई का काम किया जाता है । इसके लिए कलाकार अपने हाथों से मिट्टी में
आवश्यकतानुसार मुलायम अथवा कठोर रूप में
परिवर्तित करता है । आवश्यकतानुसार गुंथाई के बाद इस मिट्टी की परत पुवाल के ढांचे
पर चढ़ाई जाती है । एक परत लगाने के बाद उसे कुछ समय के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया
जाता है । कुछ सूखने के बाद उसपर एक दो परत और चढ़ाई जाती है । यहाँ कलाकार इस बात
का ध्यान रखता है कि कहीं से कोई परत खाली ना रह जाए ।
जैसे मनुष्य के शरीर में उसका सिर एवं मुख ही विशेष आकर्षण का केंद
बनाता है , वैसे ही शिल्पकार
भी अपनी बनाई मूर्तियों में इस बात का विशेष ध्यान रखता है कि सिर एवं मुख वाला
हिस्सा विशेष रूप से दीप्तमान रहे । सिर और चेहरा बनाने के लिए प्लास्टर के बने
साँचे में गीली मिट्टी को भरकर चेहरे एवं सिर की आकृति बनाई जाती है । सिर वाला
हिस्सा तैयार होने के बाद उसे धड़ वाले हिस्से से जोड़ा जाता है । इसके बाद से
मूर्ति के बैकग्राउंड को बनाने का कार्य प्रारम्भ होता है । यूं तो देखने में यह
काम बहुत आसान लगता है , पर इसमें सबसे अधिक जटिलता इसमें ही आती है ।
आकृति को सही रूप में यदि ना लगाया जा सका तो समस्त शोभा बेकार हो सकती है , एक बार शोभा
समाप्त हो गई तो खरीददार इसे शायद पसंद ना करें । यदि ऐसा हुआ तो कलाकार की समस्त
मेहनत बेकार चली जाती है । इस अवस्था तक मूर्ति बन जाने के बाद धीरे धीरे खरीददार
आने लगते हैं , क्योंकि वेषभूषा
एवं रंगरोदन के संबंध में लोगों की अपनी पसंद होती है , सभी अपनी पसंद का ही
मूर्ति लेना पसंद करते हैं ।
अबतक लगभग मूर्ति तैयार हो
जाती है । अब बस रंगरोदन एवं वस्त्र एवं सजावट का काम शेष रहता है । कच्ची बनी
मूर्ती के सूखने के बाद उसमें इच्छित रंग कई परतों में लगाई जाती है । रंग के बाद
उसे वस्त्र पहनाया जाता है एवं साथ ही सजावट के लिए रत्न-आभूषण एवं अस्त्र-शस्त्र
से सुशोभित किया जाता । एक बार समस्त तैयारी के साथ लगभग सजीव रूप में ढलने के बाद
, अच्छे मुहूर्त
में लोग आकार गाजे बाजे के साथ इन्हे ले जाते है एवं पंडाल में प्रतिष्ठित कर पूजा
अर्चना की प्रक्रिया शुरू की जाती है । पूजा की अवधि की समाप्ति के बाद मूर्ति
विसर्जन किसी नदी या जलाशय में किया जाता है । विसर्जन का अवसर भी बड़े धूम-धाम
वाला होता है ।
कई
स्थानों पर तो ऊंची ऊंची प्रतिमाएँ स्थापित की जाती है । इनकी ऊंचाई दस फुट से
लेकर सौ फुट तक जाती है । कलकता के सदरीय रेलवे स्टेशन है ‘नैहाटी’ जहां काली माँ की
100 फिट तक की प्रतिमा स्थापित करने का रिकार्ड दर्ज है । ऐसी प्रतिमा को देखने के
लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है ।
पश्चिम
बंगाल के मूर्तिकार इतने सधे हुए होते हैं
कि भारत के विभिन्न प्रान्तों में तो मूर्ति बनाने जाते ही हैं , विदेशों में भी
बसे भारतीय इन्हे मूर्ति बनाने के लिए बुलाते हैं ।