सीमा (आपकी ख्वाहिशों को मैंने सम्भाल रखा है)
बेटा अब खुद काम करके पैसे कमाने वाला हो गया था, इसलिए बात - बात पर अपनी माँ से झगड़ पड़ता था। ये वही माँ थी जो बेटे के लिए पति से भी लड़ जाती थी। मगर अब आर्थिक रूप से सक्षम बेटा पिता के कई बार समझाने पर भी नज़र अंदाज कर देता और कहता, "यही तो समय है अपने शौक पूरे करने के, खाने - पीने और पहनने की, जब आपकी तरह मुँह में दाँत और पेट में आंत ही नहीं रहेगी तो क्या करूँगा।" बहू सीमा भी संस्कारवान व साधारण परिवार से आई थी, इसलिए बेटे की गृहस्थी की चकाचौंध में घुलमिल गई थी। बेटे की नौकरी अच्छी थी तो दोस्तों का समूह उसी हिसाब से आधुनिक था । पत्नी को अक्सर वह पुराने तरह के कपड़े छोड़ कर आधुनिक बनने को कहता, किन्तु पत्नी मना कर देती, और वह कहता "कमाल करती हो तुम, आजकल सारा ज़माना ऐसा करता है, मैं क्या कुछ अलग कर रहा हूँ। तुम्हारी भलाई के लिए सब - कुछ कर रहा हूँ और तुम हो कि उन्हीं पुराने विचारों में अटकी हो। अच्छी ज़िन्दगी क्या होती है तुम्हारे को पता ही नहीं।" और सीमा कहती "अच्छी ज़िन्दगी क्या होती है, उससे मुझे कोई लेना - देना भी नहीं है, क्योकि जीवन का अर्थ क्या हो, मैं इस बात में विश्वास रखती हूँ।"
सहसा पिताजी आपातकालीन में भर्ती हुए थे। हृदय घात हुआ था। चिकित्सक ने पर्ची पकड़ायी, साढे़ तीन लाख और जमा करने थे। डेढ़ लाख का बिल तो पहले ही भर दिया था मगर अब ये साढ़े तीन लाख भारी लग रहे थे। वह बाहर बैठा हुआ सोच रहा था कि अब क्या करे... उसने कई दोस्तों को फ़ोन लगाया कि उसे मदद की जरुरत है, मगर किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ बहाना कर दिया। आँखों में आँसू थे और वह उदास था।... तभी सीमा भोजन का टिफिन लेकर आई और बोली, "अपना ख्याल रखना भी जरुरी है। ऐसे उदास होने से क्या होगा? हिम्मत से काम लो, पिता जी को कुछ नहीं होगा आप चिन्ता मत करो । कुछ खा लो फिर रुपयों की व्यवस्था भी तो करना है आपको। मैं यहाँ पिता जी के पास रूकती हूँ आप भोजन करके रूपयों की व्यवस्था कीजिये। "पति की आँखों से टप - टप आँसू झरने लगे।
"कहा न आप चिन्ता मत कीजिये। जिन दोस्तों के साथ आप आधुनिक दावतें करते हैं आप उनको फ़ोन कीजिये, आजमाइये तो सही, कौन - कौन मदद को आता हैं।" पति ख़ामोश और सूनी निगाहों से जमीन की तरफ़ देख रहा था। कि सीमा का हाथ उसकी पीठ पर आ गया। और वह पीठ को सहलाने लगी।
"सबने मना कर दिया। सभी ने कोई न कोई बहाना बना दिया, सीमा... आज एहसास हुआ कि ऐसी दोस्ती तब तक की है जब तक जेब में पैसा है। किसी ने भी हाँ नहीं कहा जबकि उनकी दावतों पर मैंने लाखों उड़ा दिये।"
"इसी दिन के लिए बचाने को तो माँ और पिताजी कहते थे। खैर, कोई बात नहीं, आप चिंता न करो, हो जाएगा सब ठीक। कितना जमा कराना है?"
"अभी तो पगार मिलने में भी वक्त है, आखिर चिन्ता कैसे न करूँ सीमा जी ?"
"आपकी ख्वाहिशों को मैंने सम्भाल रखा है।"... "क्या मतलब?"... "तुम जो नये - नये तरह के कपड़ो और दूसरी चीजों के लिए मुझे पैसे देते थे वो सब मैंने सम्भाल रखे हैं। माँ जी ने फ़ोन पर बताया था, साढे़ तीन लाख की व्यवस्था करनी हैं। मेरे पास दो लाख थे। बाकी मैंने अपने भैया से मंगवा लिए हैं। टिफिन में सिर्फ़ एक ही खाने में खाना है बाकी में पैसे हैं।" सीमा ने थैला टिफिन सहित उसके हाथों में थमा दिया।
"सीमा ! तुम सचमुच अर्धांगिनी हो, मैं तुम्हारे को आधुनिक बनाना चाहता था, हवा में उड़ रहा था। मगर तुमने अपने संस्कार नहीं छोड़े.... आज वही काम आए हैं। "
सामने बैठी माँ जी के आँखो में आंसू थे उसे आज खुद के नहीं बल्कि पराई माँ के संस्कारो पर नाज था और वो बहू के सिर पर हाथ फेरती हुई ऊपरवाले का शुक्रिया अदा कर रही थी।