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न मन्जिलें ही थी मेरी न रास्ते मिले मुझे।था मैं राही रात का काफ़िला दिखा नहीं।।
हर एक बूंद सागर बन जाना चाहती है ।एकता लै आगे बढ़ती है नदी कहलाती है।।
मंज़िलें न थीं थीं बस राहेंबाँहें फ़ैलाए ।चलता रहा बेवजहया वजह के लिए।यूँ ही एक मोड़ पर ठिठके कदम।पीछे मुड़कर देखाकहीं मिले दो कदम।साथी छूटे थेया चले थे छोड़एक आवाज़ पर आने वालेसौ आवाजों से भी दूर थे।