“स्वच्छंद जल स्वच्छंद दावानल
स्वच्छंद पवन के झोंके
स्वच्छंद मन स्वच्छंद गगन
स्वच्छंद जलधि तरंगें
जब सारा कुछ स्वच्छंद जगत में
फिर मानव, अपने को क्यों तू रोके ?
क्या पायेगा तू इस जग में
नश्वर शरीर को ढोके ?
जीवन के सारे रस पाये
स्वच्छंद धरा पर रहके
अब बचे हुये कुछ पल को जी ले
स्वच्छंद मगन तू होके”
--त्रिवेदी