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आँचल

4 नवम्बर 2015

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वो दिन भी कितने सुन्दर थे

जब माँ के आँचल के अन्दर थे

माँ प्यार से हाथ फेरती थीं

ममता का आभास कराती थीं

हम टुक-टुक देखा करते थे

उनके स्नेह की सुन्दर छाया में

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

दुनिया के सारे सुख भी तो

माँ के आँचल में पाते हैं

सपनों में हम खो जाते थे

जब माँ के आँचल में आते थे

माँ के आँचल में आते ही

कई लोकों को पा जाते थे

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

माँ के कोमल कोमल हाथों से

जब सर सहलाया जाता था

उस सुखद आनंद के क्षण में

मन भीगा भीगा जाता था

माँ के ममतामयि नयनों को

जब हम निहारा करते थे

सारे सुख को उनके नयनों में

एक झलक में पा जाते थे

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

जब फुदक-फुदक कर

दौड़ भाग कर

माँ के पास आऊँ मैं

उनकी करुणा की छाँव में

स्नेह प्यार सा पाऊँ मैं

लिपट-लिपट माँ के आँचल से

गीत उन्हीं के गाऊँ मैं

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

माँ के आँचल में सावन है

माँ के आँचल में भादों है

माँ के आँचल में सर्दी है

माँ के आँचल में गर्मी है

सब कुछ वो खुद ही सहती थीं

आँचल में मुझे छुपाए रखती थीं

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

जब प्यार से माँ मुझे बुलाती थीं

हम छुप-छुप जाया करते थे

वो बाँध आँख में पट्टी को

तब मुझको ढूँढा करती थीं

हम नन्हें-नन्हें पैरों से चलके

माँ को हल्का सा छूते थे

तब हौले-हौले मुड़कर वो

आँचल में अपने भर लेती थीं

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

माँ आठोंयाम चिंता करतीं

नैनों से अपने ओझल करतीं

जब तुतला के उन्हें बुलाता था

झट दौड़-दौड़ के आती थीं

स्नेहमयि ममता का आँचल

जब मेरे ऊपर लाती थीं

लगता था इनमें खो जाऊँ

मैं सदा उन्हीं का हो जाऊँ

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

   

अब समय भी कुछ और हो गया

बचपन भी चकाचौंध में खो गया

अब आँचल ने भी बदला स्वरूप,

ट्राली में सिमट के रह गया

ममतामयी स्नेह का

आँचल भी छूट के रह गया

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

अब पलते बढ़ते हैं ट्राली में

करते हैं सैर-सपाटा ट्राली में

अब तो अपना रुतबा भी

ट्राली से पहचाना जाता,

आँचल का सौभाग्य खो बैठा

ट्राली में ही सो जाता हूँ

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

अब एक चाह सी रहती है

माँ के आँचल में रहने की

उछल-उछल कर

कूँद- कूँद कर

माँ के आँचल में जीने की

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

और, कहूँगा माँ से मैं अब

माँ मुझे आँचल ला दो

माँ, मुझे आँचल ला दो

मेरी प्यारी माँ, मुझे आँचल ला दो

माँ मुझे आँचल ला दो

वो दिन भी कितने सुन्दर थे, जब माँ के आँचल के अन्दर थे

 

रचनाकार गोपालकृष्ण त्रिवेदी

दिनाँक २७ नवंबर २०१४

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बहुत सुन्दर रचना ! गोपालकृष्ण त्रिवेदी जी की कविता साझा करने हेतु धन्यवाद !

4 नवम्बर 2015

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gopalkrishna
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