ये सच है कि कलाकार स्वतंत्रता की ज़मीन पर ही काम करता है उसके विचारों कि स्वतंत्रता ही उसकी वो जादुई तूलिका होती है जिसके माध्यम से वो अनेकानेक रचनाओं में रंग भरता है. कलाकार स्वतंत्र नहीं होगा तो किसी भी नयी रचना की सम्भावना भी नहीं रहेगी. विचारों कि जितनी स्वतंत्रता होती है, कल्पना कि उड़ान भी उतनी ही ऊंची होती जाती है.
फिर भी, हमारी स्वतंत्रता बस वहीँ तक सीमित है जहाँ तक ये किसी और कि स्वतंत्रता में हस्तछेप न करे. दुनिया में कितने ही ऐसे शीर्षस्थ कलाकार हुए हैं जिनकी कल्पना कि उड़ान कि प्रशंसा करते हुए हम वाह-वाह करते नहीं थकते. उनकी कृतियाँ हमें हमेशा प्रेरणा देती हैं कुछ ऐसा रचने के लिए जो सार्वभौमिक हो, सर्वग्राह्य गो और सर्वमान्य भी.
चूंकि एक कार्टूनिस्ट के साथ हास्य, व्यंग्य और कटाक्ष के रंग हमेशा साथ चलते हैं, इसलिए विवादस्पद स्थितियां उत्पन्न होने की संभावनाएं भी अक्सर होती हैं. ये सच है कि कलाकार जानबूझकर किसी कि भावनाओं को आहत करने का जोखिम कभी नहीं उठाना चाहता लेकिन जाने-अनजाने. रचनाओं में रंग भरते-भरते कल्पनाओं के असीम सागर में वो इतन डूब जाता है कि वो उस सीमा रेखा को भी लांघ जाता है जो कदाचित किसी कि भावनाओं को ठेस पंहुचा सकती हैं.
वस्तुतः:जब हम किसी कलाकार कि बात करते हैं तो हम कोमल और संवेदनशील मन कि बात कर रहे होते हैं जिसका उद्देश्य अपनी कला के माध्यम से बात को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करना होता है. कलाकार मात्र अपनी कल्पना को अपने ढंग से प्रस्तुत करता है. किसी कि भावनाओं को आहत करने का उद्देश्य लेकर वो कोई कृति नहीं बनता. शायद ये तो उसे जनमानस कि प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप हे ज्ञात हो पाटा है कि उसने किसकी भावनाओं को कितना सुकून दिया या कितना आहत किया. फिल्मों के कितने ही दृश्य सेंसर बोर्ड को उसके निर्गत होने से पहले अमान्य करने पड़ते हैं. इसके बावजूद उनमे ऐसा कुछ सम्पादित करने के लिए फिरभी रह जाता है जिसे दर्शकों की नापसंदगी और भर्त्सना का सामना करना पड़ता है.इसका अर्थ तो यही लगाया जा सकता है कि कई बार अनुभवी लोगों का पूरा निर्णायक मंडल भी ये बात नहीं समझ पाता कि कौन सी बात किन धर्मावलम्बियों को कितनी बुरी लगेगी.
शार्ली हेब्दों कार्टून के मामले में भी हम यही कह सकते हैं कि ये अभिव्यक्ति कि ऐसे स्वतंत्रता है जिसने जाने-अनजाने किसी और कि भावनाओं और उसकी स्वतंत्रता का ध्यान नहीं रखा. इसलिए रचनाकारों के लिए ये अतिआवश्यक है कि वो अपनी पूरी शक्ति और संपूर्ण सामर्थ्य ऐसी रचनाओं के निर्माण पर प्रयोग करें जो सार्वभौमिक हों तथा जिनमें किसी व्यक्ति विशेष या जाती-धर्म पर कोई टीका-टिप्पड़ी न हो. यदि रचनाकार किसी कि भावनाओं को जानबूझकर आहत नहीं करना चाहता, तो ये सुधि समाज और जनमानस भी किसी कलाकार विशेष कि भावनाओं पर आघात नहीं करना चाहता.
-ओम प्रकाश शर्मा