यह उन दिनों की बात है ,
जब उम्र कुछ ऐसी थी की ज़िन्दगी के बड़े से बड़े फैसले कैन्टीन मे चाय और समोसो के साथ बनते और बिगड़ जाते थे.
यह उन दिनों की बात है जब ज़िन्दगी, इनटरवल के पहले हिंदी पिक्चर की तरह थी,
ट्रेजेडी अभी हुई नहीं थी और क्लाइमेक्स अच्छा ही दीखता था.
ऐसी ही एक कैंटीन मे बैठ कर प्रथम ने नेहा का हाथ थामा था,
'मुझे सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा साथ ही चाहिए, हम साथ मिलके यह जहाँ जीत सकते है.', एक भरोसे के साथ किया उसने यह वादा था.
यह उन दिनों की बात है जब सपने सुनहरे और ज़िन्दगी जवान थी.
साथ चलने का वादा था, साथ जीने का वादा था, साथ सपने पुरे करने का वादा था.
आज प्रथम ड्राइंग रूम मे बैठ के रिमोट से टीवी चैनल बदल रहा है और नेहा रसोई मे रोटी सेक रही है.
सपने शायद उसके चूल्हे की आग मे कही दब गए और कुकर की सीटीयों मे दिल की आवाज़ कहीं घूम सी गई|
अब बस रोटी बेल बेल के अंदर रह गयी है एक टीस , जो एक फोड़े मे भरी पस की तरह नौकती है.
छू लो तो दर्द से रूह काँप जाती है और अगर नजर अंदाज कारदो तो दर्द थोड़े दिन नहीं होता,
जब तक नहीं होता जब तक उनदिनों की बात फिरसे याद नहीं आ जाती .