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तुलसी और श्री रामचरितमानस

11 अगस्त 2016

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बचपन में एक निबंध पढ़ा था उसमें ‘मेरा प्रिय ग्रंथ’ के अंतर्गत रामचरितमानस को आधार बनाया गया था। उस समय थोड़ा अटपटा सा लगा था। शायद इसलिए कि उसे तो हम धार्मिक ग्रंथ के रूप में जानते थे। प्रिय जैसा संबोधन कुछ अलग सा लगा था। जैसे प्यारी मां, प्यारे पिता जैसी बात समझ में नहीं आती । मां, मां है, पिता, पिता है। उसमें भी अच्छा, बुरा कुछ हो सकता है क्या? ऐसा उस समय लगा था। खैर उस समय से अब तक जितनी बार भी भाव, कुभाव मानस का पाठ होता जा रहा है वह उतनी ही प्रिय से प्रियतर होती जा रही है। अब ये तुलसी दासजी की सरल, सहज भाषा में लिखे जाने के कारण है, मेरी रामजी के प्रति आस्था के कारण है, शिवजी द्वारा इस कृति पर अपने हस्ताक्षर किए जाने से मंत्र-मंत्र हुए प्रत्येक शब्द के कारण है या ईश्वर की विशिष्ट अनुकंपा के कारण है कुछ कह पाना ठीक-ठीक संभव नहीं।

हमारे पैतृक स्थल पिथौरागढ़, उत्तराखंड वाले घर में तो रामायण का पूरी भव्यता से पाठ संभवतः 5-6 माह में होता ही रहता था। लखनउळ के घर में भी बहुधा ऐसा संयोग बनता रहता था। कम कहने को मोहल्ले, रिश्तेदारी, मित्रों, जान-पहचान के घर में भी इसका सस्वर पारायण होता रहता था। मानस की पंक्ति-पंक्ति में ही इतना आकर्षण है कि वह बरबस आपको अपने में समेट लेती है। जैसे मां अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराते चलती है। वैसा ही कुछ वात्सल्य,अमृतपान का सुख मानस कराते चलती रहती है। दूसरी बात उसमें अद्भुत संगीत का जादू है। वेदों की ऋचाओं का सस्वर पाठ जैसे कानों को दिव्य अनुभूति का पान करता है। वैसा ही कुछ बड़ा स्वाभाविक सा किसी भी धुन, किसी भी ताल पर इसका पारायण अंतर्मन को तरंगित करने में समर्थ है।

संतप्रवर तुलसीदासजी ने अनेक रचनाएं अपने जीवनकाल में की लेकिन श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा का सा प्रभाव तो किसी भी ग्रंथ के मुकाबले ‘भूतो न भविष्यति’ लगता है। इसलिए और भी क्योंकि इनकी पकड़ का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। जनसामान्य से लेकर तथाकथित गंवार (वस्तुतः जो कहीं ज्यादा रामजी के निकट हैं) और विशिष्ट बुद्धिजीवियों तक। कोई ऐसा नहीं है जो उसके रसधार में स्नान का इच्छुक न हो। कोई सामान्य रामकथा के आधार पर उसका पारायण कर प्रसन्न होता है तो कोई उसमें छुपे अलौकिक भाव रूपी मोतियों को एकत्रित कर सबको चमकृत कर देता है तो कोई उससे ही अपने राम को रिझाने में व्यस्त रहता है।

तुलसी की रामकथा अलौकिक है, भव्य है, भक्ति की पराकाष्ठा है, सामाजिक व्यवस्था की नींव है, भगवान को भक्त की अनुपम भेंट है। क्या नहीं है यह? समस्त श्रेष्ठ ग्रंथों वेद, वेदांग, पुराण, उपनिषद - सबका सरल, सहज शब्दों में सार है इसमें। मुझे तो इसके अलावा और कोई ग्रंथ आंखों में बसता ही नहीं। वैसे सच तो ये है कि इसके अतिरिक्त और कोई ग्रंथ पढ़ा ही  नहीं। इसके ही सावन में अंधा हुआ हूं तो भला और क्या सूझेगा। सब हरा-हरा, जितना भी समझ आ रहा है वो तुलसीदासजी की ही कृपा का परिणाम है।

इधर आजकल लोगों में गुरु बनाने की प्रवृत्ति जोर मारती दिख रही है फिर साथ ही मेरा गुरु  तेरे गुरु  से श्रेष्ठ हैं ऐसे भी बात देखने में आ रही है। टेलीविजन और मीडिया के बढ़ते प्रभाव से इसका असर काफी व्यापक हुआ है। उन पर प्रसारित प्रवचनों से सरल बुद्धि, भक्ति भावना से ओतप्रोत लोग गुरु  और गुरुघंटालों में भेद कहां कर पा रहे हैं। एक अजब भेड़-धसान सा चित्र सामने आ रहा है। जबकि हमारी संस्कृति में गुरु  ही अपने शिष्य को खोजता है। जो भी होगुरु तो गुरु ही है उस पर कुछ टिप्पणी शोभनीय नहीं लेकिन मुझे लगता है कि तुलसीदासजी के महान ग्रंथ श्रीरामचरितमानस के रहते किसी अन्य को गुरु बनाने की आवश्यकता ही क्या है? गुरु  तो वही है न जो आपको सांसारिक, आध्यात्मिक जीवन से जुड़ी समस्त समस्याओं से निजात दिलाने में पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाए। और परमात्मा से आपका मिलन करा दे। श्रीरामचरितमानस इस दृष्टि से शतप्रतिशत खरा उतरता है। वो आपको पीतल से सोना बनाने की सामर्थ्य रखता है। धीरे-धीरे वह आपका कायाकल्प करने लगता है। गुरु  की तरह वह आपसे संवाद करता चलता है और हर छोटी-बड़ी समस्याओं का सामाधान देने लगता है। बस उसके सम्मुख अपने को जैसे हैं वैसे प्रस्तुत कर दीजिए। अपनी खामियां खुद समझ में आने लगेंगी। सही दृष्टि, सही व्यक्तित्व, सही निर्णय लेने की क्षमता स्वतः पैदा होने लगेगी। श्रीरामचरितमानस का दैनिक रूप में नियमित पाठ सुबह-शाम या कि समयाभाव में एक ही बार 5 से 7 दोहों को लेकर किया जाना गुरु की हमारे जीवन में मंगलकारी उपस्थिति दर्ज करा देगी। इसमें संदेह नहीं। श्रीरामचरितमानस के अंतिम छंद में तुलसीदासजी इस बात की गारंटी भी देते हैं ‘सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै। दारुन अविद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।’ सो रामचरिमानस से अधिक कल्याणकारी ग्रंथ कौन होगा जिसका पारायण पुनः तुलसी के ही शब्दों में ‘कलिमूल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं’ की आश्वस्ति देता हो। सो तुलसी जयंती पर तुलसीदासजी का शतकोटि अभिनंदन कि उनकी साधना के पुण्य प्रताप से हमें श्री रामचरितमानस सा दुर्लभ रामभक्ति की कृपा-सरिता में स्नान का अवसर दिलाने वाले ग्रंथ का उपहार मिला । इसका पूरे मनोयोग से हम पाठ करते चलें तो न केवल तुलसीदास जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी अपितु अपने जीवन की राह भी रामजी के श्री चरणों तक नतमस्तक होने के लिए प्रशस्त हो जाएगी।

श्री राम जय राम जय जय राम।


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बचपन में एक निबंध पढ़ा था उसमें ‘मेरा प्रिय ग्रंथ’ के अंतर्गत रामचरितमानस को आधार बनाया गया था। उस समय थोड़ा अटपटा सा लगा था। शायद इसलिए कि उसे तो हम धार्मिक ग्रंथ के रूप में जानते थे। प्रिय जैसा संबोधन कुछ अलग सा लगा था। जैसे प्यारी मां, प्यारे पिता जैसी बात समझ में नहीं आती । मां, मां है, पिता, पिता

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