पर्व विजय दशमी का आया
सत्य की विजय को लाया
कहानी वही त्रेता की है
कथा राम राज्य की है
वनवास चौदह वर्ष का था
अवसर न कोई हर्ष का था
वन के भीतर वास राम का
सुर्फ़नखा का प्रवास वहाँ था
मोहित होकर वह राम पर
सीता को मारन चली थी
लक्षमण जी सचेत हो गए
वार कर दिया उसकी नाक पर
वह भरमाई घबराई सी
दौड़ी गई लंका की ओर में
हाल सुनते ही दशानन्द
दहल उठा व चारो ओर से
वह रावण बड़ा ही पापी है
अधर्मी महाविनाशी है
मुख पर उसके रौद्र रूप
भीतर से घमंड उछलता है
वो दशानन्द है राक्षस है
रावण वो अहंकारी है
छल कपट है उसके भीतर
सीता का हरण वो कर लाया
बुद्धि जीव होकर के भी
मूर्खता का परिचय दे आया
मति उसकी क्या मारी गई
माँ सीता का जो हरण किया
क्या जान उसे प्यारी नही
अंजाम इसका न स्मरण किया
दूत राम के एक से एक
रावण को शांति संदेश दे आये
व दूतो की लाज न रख पाया
सारे संदेशे ठुकराए
अंगद ने पैर को जमा दिया
हनुमान ने लंका जला दिया
सोने की लंका राख हुई
अहंकार वही पर मिटा दिया
जब काल दुष्ट का आता है
पानी पत्थर तैराता है
पाप अधर्म मिटाने को
शस्त्र उठाया जाता है
अब समय विजय का निकट आ गया
सभी दुष्टों पर काल छा गया
अश्विन माह की शुक्ल पक्ष थी
दिवस शुभ दशमी का था
माँ दुर्गा का ले आशीर्वाद
ले आये राम धनुषबाण
वो आदर्शवादी है देव तुल्य
मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम
रणभूमि है प्रस्थान किये
महादेव को प्रणाम किये
रावण भी रणभूमि आया
रुद्र देव को शीश नवाया
भक्त दोनों ही शिव शंकर के
एक दूसरे के समक्ष खड़े
एक मर्यादा पुरुषोत्तम राम
है दूसरे को बड़ा अहंकार
हुआ शंखनाद युद्ध का संकेत हुआ
युद्ध छिड़ा घनघोर बड़ा
अब अंत दुष्ट का आया है
रावण बुद्धि से भरमाया है
स्वयं राम से युद्ध करने को
व मूर्ख चला आया है
रावण ने शस्त्र धारण किया
राम ने भी अब प्रहार किया
एक तीर से दशोंसर भेदा
दूजे से नाभि को छेदा
रावण मुच्छित होकर गिर पड़ा
पहचाना प्रभु को माँगी क्षमा
कहता, है विष्णु रूप है पालनहार
मैं मूर्ख बड़ा हूँ, करो उद्धार
मैं क्या ज्ञानी मेरी भृष्ट बुद्धि
अहंकार का त्याग न कर पाया
मैं तुम्हें न जान सका प्रभु
माँ सीता का हरण भी कर लाया
मैं क्षमा याचना करता हूँ
अब मेरा भी उद्धार करो
अधर्म की लंका जलाकर के
राम राज्य का विस्तार करो
पर्व विजय दशमी का है
मन के रावण को जलाकर के
धर्म का राज्य फैलाना है
राम राज्य को लाकर के