मरुस्थल सी तपती कोई वीरान धरा हूँ मैं!
कभी रफ़्ता रफ़्ता चलती शरद हवा हूँ मैं!
कल्पनाओं की तरह बनता बिगड़ता हूँ ऱोज
अब तुम्हें क्या बताऊँ की क्या हूँ मैं!
तुमने तो सोचा था कि अधूरा ही रह जाऊँगा
आ अब देख मुझे कितना इक्तिफ़ा हूँ मैं!
ख़ामोशी पढ़ सकते हो तो समझलो पढ़कर
बोल तो नही सकता अभी बेजुबां हूँ मैं!
~ अभिषेक नायक