“मुझे हमारी राष्ट्र्भाषा हिंदी पर गर्व है।”
“गर्व है!? लेकिन किस बात का?”
“क्योंकि हिंदी विश्व की सबसे श्रेष्ठतम और महानतम भाषा है।”
“कैसे? किसने कहा तुमसे?”
“किसने कहा क्या मतलब? है ही, बचपन से सुनता आ रहा हुं। जितनी मिठास हिंदी में है उतनी है क्या किसी भी अन्य भाषा में?”
“चलो ठीक है, लेकिन ये तो बताओ कि भाषा की महानता का पैमाना क्या है तुम्हारे हिसाब से? और बात अगर मिठास की है तो वो तुम्हें इसलिए महसूस होती है क्योंकि यह तुम्हारी फर्स्ट लैंग्वेज है, पैदाइशी भाषा है। इसलिए तुम इस भाषा में सहज महसूस करते हो। अगर तुम इंग्लैंड में पैदा होते तो तुम्हें अंग्रेजी में भी यही मिठास महसूस होती, स्पेन में पैदा होते तो स्पेनिश में और फ्रांस में पैदा होते तो फ्रेंच तुम्हें मीठी लगती और हिंदी अजीब।”
“तुम्हारा मतलब है कि अंग्रेजी, स्पेनिश और फ्रेंच हमारी हिंदी से ज्यादा महान है?”
“हा हा हा, भाषा में महानता का प्रश्न कहां से आ जाता है भई? भाषा क्या है? भाषा सिर्फ कम्युनिकेशन यानी संवाद का माध्यम है। अर्थात अपने विचार किसी दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम भर है। तो किसी भी भाषा द्वारा पहुंचाए जा रहे विचार महान अथवा घटिया हो सकते हैं भाषा नहीं। ”
“फिर अंग्रेजी बोलना गर्व का विषय क्यों है और मारवाड़ी बोलना शर्म का विषय क्यों है?”
“क्योंकि वो तुमने बना रखा है अपने मन मे। अंग्रेजी बोलने वाले गंवार को भी तुम समझदार मानते हो और मारवाड़ी में बोलने वाले विद्वान को भी जाहिल, बाकी कोई भी भाषा गर्व अथवा शर्म का विषय ही नहीं है। याद रखना… जिनके पास वास्तव में गर्व करने लायक कोई उपलब्धि नहीं होती सिर्फ़ उन्हीं के पास फ़िर भाषा-बोली, खान-पान, पहनावा जैसी चीजें बचती हैं गर्व करने के लिए। और अंग्रेजों को भी तो तुम्हारी भाषा नहीं आती, वो तो शर्मिंदा नहीं होते? तो फिर तुम्हें उनकी भाषा ना आए तो शर्मिंदा होते ही क्यों हो?”
“वो तो ठीक है, लेकिन यार ये क्या बात कर रहे हो, अंग्रेजी बोलने वाला भला बेवकूफ थोड़ी हो सकता है?”
“क्यों नहीं हो सकता? इंग्लैंड में बेवकूफ़ नहीं हैं? अपने राहुलवा को नहीं सुने कभी टीवी या मंच पर? जिस जगह अंग्रेजी का पैदा होते ही ‘नाळा मोड़ा गया था’ (अर्थ नहीं पता हो तो किसी मारवाड़ी दोस्त से पूछें) वहीं से ही पढ-पढाकर आए हैं जनाब। फिर भी हैं कार्टून के कार्टून।”
“यानी कि फिर हमें अंग्रेजी नहीं पढनी चाहिए?”
“हां अगर 10-15 वीं शताब्दी में बैठे रहना है तो फिर नहीं पढनी चाहिए।”
“मतलब??”
“मतलब पिछले हजारेक सालों में तुमने कुछ आविष्कार किया हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। तो फिर जो आविष्कार पश्चिमी देशों ने किए हैं तो उन आविष्कारों को, तकनीक को, वि ज्ञान को समझना चाहते हो तो फिर अंग्रेजी सीखनी ही पड़ेगी। बाकी html कोडिंग तुम हिंदी में कर पाओ तो कर लो कौन मना कर रहा है।”
“क्यों कन्फ्यूज कर रहे हो यार, साफ साफ बताओ ना तुम अंग्रेजी के पक्ष में हो या विपक्ष में?”
“कैंचो तुम हर बात में पक्ष-विपक्ष ढूंढना कब छोड़ोगे? मैं अंग्रेजी (या कोई भी भाषा) सीखने के पक्ष में हुं लेकिन भाषा को गर्व का विषय बनाने के विपक्ष में हुं। अंग्रेजी हमें सीखनी पड़ेगी क्योंकि यह हमारी आवश्यकता है या समझ लो मजबूरी है।”
“तो फिर तो अंग्रेजी महानतम हुई ना, क्योंकि सारे आविष्कार तो इसी में हुए हैं।”
“आविष्कारों में अंग्रेजी का क्या योगदान है? आविष्कार वैज्ञानिकों ने किए हैं अंग्रेजी ने नहीं। यदि वही वैज्ञानिक भारत में पैदा होते तो उनकी भाषा हिंदी होती और आज अंग्रेजी वालों को हिंदी सीखनी पड़ती उन तकनीकों को समझने के लिए। या शायद कई पैदा हुए भी होंगे लेकिन यहां के माहौल, सोच और संशाधनों की कमी ने उन्हें आविष्कार करने नहीं दिए होंगे।”
“अबे छोड़ो यार क्या बात करते हो फालतू की, हम तो बचपन से विश्व गुरु रहे हैं। और विज्ञान तो पैदाइश ही हमारी है। ये जो भी आविष्कार आज कर रहे हैं उनका आधार ही हमारा प्राचीन ज्ञान है। और तो और शून्य का आविष्कार भी हमने ही किया था”
“आखिरकार इतनी मेहनत के बाद अब बिल्कुल सही पकड़े हो। तुम्हारे इसी क्यूटियापे ने तुम्हें कुछ करने नहीं दिया, सीखने नहीं दिया और तुम आज भी शून्य ही हो। तुम्हारे इतिहास ने ही तुम्हारा वर्तमान और भविष्य बर्बाद किया है, काश तुम्हारा इतिहास ही ना होता।”