*🌹श्री राधे कृपा ही सर्वस्वम🌷*
*जय श्रीमन्नारायण*
आज समाज की दयनीय स्थिति जीवन में अधिक पाने की लालसा का खत्म ना होना जीवन को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है की अंततोगत्वा कोई भी साथ में चलना पसंद नहीं करता दोष दूसरों को देते हैं और अपनी तरफ कभी ध्यान नहीं देते एक दृष्टांत याद आ रहा है एक राजा था उसने एक दिन नगर भ्रमण पर निकलने से पहले विचार किया की आज जो भी सबसे पहले मिलेगा हम उसको इतना कुछ देंगे क्यों उसकी सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाएं उसे किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े झुकना ना पड़े मांगना ना पड़े राजा नगर में निकला सामने एक बहुत ही गरीब वृद्ध पर उसकी नजर पड़ी जो भीख मांग रहा था राजा ने विचार किया किसको कुछ दे दिया जाए राजा ने उसे अपने पास बुलाया अपने पास से एक तांबे का सिक्का उसकी तरफ उछाला परंतु वह सिक्का नाली में जाकर गिर गया राजा ने देखा वह आदमी नाली से सिक्का निकालने के लिए दौड़ा तब तक राजा को प्रातः की अपनी बात याद आ गई राजा ने उसे पुनः बुलाया और जेब से पुन्हा एक सिक्का तांबे का उसे दे दिया तांबे का सिक्का लेकर के जो आदमी फिर से नाली की तरफ बढ़ा राजा ने फिर बुलाया और चांदी का सिक्का उसके हाथ में दे दिया राजा ने सोचा शायद इसे पैसों की अधिक जरूरत है इसीलिए यह नाली से सिक्का निकालने का प्रयास कर रहा है इसीलिए राजा ने उसे एक स्वर्ण का सिक्का दे दिया वह आदमी फिर नाली की तरफ बढ़ा राजा ने फिर से उसको बुलाया और बोले देखो तुम्हें पैसों की अधिक जरूरत है आज मैं तुम्हें अपना आधा राज्य धन दौलत प्रदान करता हूं अब तो तुम्हारी लालसा समाप्त हुई वह आदमी बोला महाराज प्रसन्नता तो तब होगी जब नाली में पड़ा तांबे का सिक्का मुझे मिल जाए इसका मतलब आज समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जिनको कुछ भी दे दो आगे बढ़ाने का प्रयास करो उनकी उन्नति का प्रयास करो अपने कार्य रोक दो अपना पद छोड़ कर उनका साथ दो लेकिन वह तब तक आपकी बात नहीं मानेंगे जब तक नाली में पड़ा तांबे का सिक्का नहीं मिलता क्योंकि उनकी मानसिकता अलग है उनका मानना है कि जितना अधिक मिल जाए जैसी भी मिले छल कपट आदि जिस प्रकार से दूसरे से मतलब निकल सकें दूसरे का धन प्राप्त हो और क्या कहें बहुत दुख होता है जब हमारे विद्वत समाज के अच्छे-अच्छे वरिष्ठ तम लोग यह कहकर कार्य करते हैं कि अगर एक बार में किसी का कार्य हो गया तो दोबारा पैसे कौन देगा कौन चाहेगा दोबारा से हमारा खर्च हो मैं "आचार्य हर्षित कृष्ण शुक्ल" समाज को देखकर पुणे दृश्यों को समझते हुए देखते हुए अंततोगत्वा यह कहने पर मजबूर होता हूं पर *उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नरना घने रे।*
क्या अधिक पाने की लालसा में हम अपनी संस्कृति अपने दायित्व अपनी परिपाटी अपनी परंपरा सभी को बुलाकर केवल धन के लोभी बने रहेंगे आज हमें फिर से अपनी सनातनी परंपरा का सनातन कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा के साथ ईमानदारी से निभाना है आज जो भी हम लालच के वशीभूत होकर यजमान का संकल्प लेकर पूर्णरूपेण उसे संपादित नहीं करते ध्यान रहे हम उसके कर्जदार होते जा रहे हैं हमें वह कर जा चुकाना होगा अंत में फिर कहना चाहूंगा कि हम इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए *सियाराम मय सब जग जानी* की परंपरा को निभाते हुए अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरी ईमानदारी के साथ संपादित करें यही निवेदन है
*जय श्री सीताराम जय श्रीमन्नारायण जय श्री राधे कृष्णा*
*आचार्य*
*हर्षित कृष्ण शुक्ल*
*प्रवक्ता*
*श्रीमद् भागवत एवं श्री राम कथा*
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