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*जय श्रीमन्नारायण*
*श्री राधे कृपा हि सर्वस्वम*
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*सन्त का स्वभाव एवं गुण*
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मनुष्य इस जीवन में सदैव अनुकूलता को चाहता है पर प्रतिकूलता नहीं चाहता यह उसकी कायरता है अनुकूलता को चाहना ही खास बंधन है इसके सिवाय और कोई बंधन नहीं इस चाहना को मिटाने के लिए ही भगवान बड़े प्रेम से और स्नेह से प्रतिकूलता भेजते हैं यदि जीवन में बताएं तो समझना चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे ऊपर असीम कृपा की है रात्रि होती है तभी प्रभात का आनंद प्राप्त होता है जब दुख मिलता है तभी सुख का अनुभव होता है अगर कोई व्यक्ति जन्म से लेकर के बराबर सुखी भोगता रहे तो यह समझेगा ही नहीं सुख क्या होता है जब कड़वा खाएंगे मीठा खाने पर अच्छा अनुभव होगा कहने का तात्पर्य सुख तभी सुख मालूम पड़ता है जब दुख मिला हो और दुखी नहीं मिला तो सुख का अनुभव कैसा भगवान नारायण ने गीता जी में जो उपदेश दिया आज बड़ी कृपा है हमारे जीवन की हमारे धर्म का संविधान है जो भगवान श्री कृष्ण चंद्र जी ने आज से हजारों वर्ष पहले निर्मित कर दिया था कहना चाहता हूं जो संत हैं जो साधक है वह सदैव शुभ दृष्टि वाला हो शीलवान हो
धैर्यवान हो सब की प्रति जड़ जीव चेतन सब में नारायण को देखते हुए राग द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता प्राप्त होने पर उसकी बुद्धि परमात्मा एमएसटी रहो अंतः करण सुंदर हो लेकिन जैसा कि भगवान ने कहा जिस समय भृगु जी ने नारायण के हृदय पर चरण प्रहार किया
तो नारायण ने कहा अरे प्रभु आपको बहुत चोट आ गई मैं कितना कठोर हूँ और आपका चरण कितना कोमल
अब देखिए उन्ही भगवान के हम अंश हैं *ममैवांशो जीव लोके*
उन प्रभु के अंशु होकर उनके साधक होकर हम आज क्या उनकी उपदेश उनके पद चिन्ह उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर चल रहे हैं हम अपने आप को संत कहते हैं भक्त कहते हैं लेकिन बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है मैं:" आचार्य हर्षित कृष्ण शुक्ल" स्वयं का अनुभव कहता हूं आज ऐसे ऐसे तथाकथित संत महंत समाज में हैं जो अपने आप को प्रदर्शित तो बहुत कुछ करते हैं लेकिन राग द्वेष ईर्ष्या आदि उनके रोम-रोम में व्याप्त है किसका कैसे अहित किया जाए किसको किस प्रकार से नीचा दिखाया जाए दिन रात यही सोचते रहते हैं वह अपने माता पिता गुरु भ्राता शिष्य किसी के नहीं होते अगर भाई आगे बढ़ रहा है शिष्य आगे बढ़ रहा है उसको भी नीचा दिखाने के लिए नीचे से नीचे हरकत भी कर देते हैं क्या यही संत की परिभाषा है क्या यही वैष्णव ता है हम क्या है क्या कर सकते हैं अगर परमात्मा न चाहे तो हम एक तिनका का भी इधर से उधर नहीं कर सकते जब सब कुछ कर्ता-धर्ता परमपिता परमात्मा है तो हम अहम के वशीभूत होकर किसी के प्रति ऐसी भावना क्यों रखें ना तो हम किसी को भोजन देते हैं न किसी का पालन करते हैं फिर हम किस बात का पालनकर्ता जीवन दाता स्वयं नारायण है और उन्हीं का अंश सबने विद्यमान है फिर द्वेष किस बात का ईर्ष्या किस बात की किससे *सियाराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोर जुग पानी* जिसे दिन यह भाव बन जाएगा उस दिन आप सच्चे भक्त सच्चे संत सच्चे महंत हो जाएंगे दिखावा छोड़कर परमपिता की शरणागति की तरफ चलो यही जीवन है छल से दंभ से कपट से पैसे पैदा करके इस जीवन को नर्क बना कर आने वाले जीवन को भी नर्क गामी मत बनाओ सब कुछ परमपिता परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दो जो होगा वह अच्छा होगा यह भावना करते हुए उनकी शरणागति हो जाओ यही जीवन है
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*जय जय श्रीमन्नारायण जय जय श्री सीताराम*
*आचार्य*
*हर्षित कृष्ण शुक्ल*
*प्रवक्ता*
*श्रीमद् भागवत कथा संगीत में श्री रामकथा*
*लखीमपुर खीरी*
*(उत्तर प्रदेश)*