मेरी यूरोप यात्रा
यात्रा करना मानव की मूल प्रवृत्ति है। हम अगर मानव इतिहास पर नजर डाले, तो ज्ञात होगा कि मनुष्य के विकास की यात्रा में, यात्रा का महत्वपूर्ण योगदान है। अपने जीवन काल में मानव कोई न कोई यात्रा के लिए कहीं न कहीं अवश्य जाया करता है।
मगर कुछ साहित्य पसंद व्यक्ति अपनी यात्रा के अनुभव व ज्ञान को पाठकों के लिए कलमबद्ध कर यात्रा साहित्य में अपना योग दान देते हैं। यात्रा वृतांतों के लेखन का मूल उद्देश्य लेखक द्वारा यात्रा किये गए स्थल के सम्बन्ध में जानकारी देकर उन्हें भी यात्रा के लिए आकर्षित करना होता है। लेखक अपने यात्रा वर्णन में अमुक स्थान की प्राकृतिक विशिष्ठता, सामाजिक संरचना, समाज के लोगों का रहन सहन संस्कृति, स्थानीय भाषा, आगंतुकों के प्रति उनकी सोच व विचारों को अपने साहित्य में स्थान देता हैं। एक सच्चे यात्री के सम्बन्ध में कहा गया है कि यायावर की कोई मंजिल नहीं होती है। वह मन की तरंगों के कथनानुसार आगे बढ़ता जाता है, तथा राह की कठिनाइयों में आनन्द की अनुभूति को खोजता है। यात्रा व्यक्ति को तटस्थ नजरियाँ देती है। जो हमें दैनिक जीवन में देखने को नहीं मिलता है। एक नये वातावरण में जाकर व्यक्ति कुंठा मुक्त हो जाता है।अपने निकट वातावरण के दवाब से मुक्त होकर, नये स्थानों, नये लोगों से सम्बन्ध स्थापित करता है। यात्रा वृतांत हिंदी साहित्य के हर युग में लिखे गए हैं।
यात्रा एक अनुभव के साथ-साथ अनुभूति भी है। यह हमें रोज की ज़िंदगी के अलावा कुछ अलग करने का मौका देती है। यात्रा के दौरान, हम अपने काम-काज से फुर्सत पाते हैं और सबसे बड़ा लाभ यह है कि हम स्वयं के साथ समय व्यतीत कर, खुद के बारे में बेहतर तरीके से जान पाते हैं। यह ब्रेक हमारे लिए ज़रूरी भी है। खुद को जानने के बाद वापस लौट कर एक नयी शुरुआत करना काफी संतोषजनक होता है। जिस तरह से हम किसी यात्रा की शुरुआत करते हैं। वह उस तरह से समाप्त नहीं होती बल्कि हमारे मस्तिष्क को पूर्ण रूप से बदल देती है। सिर्फ यात्रा ही वो अनमोल वस्तु है जो हमें एक बार में ही कई नए अवसर प्रदान करती है। फिर चाहे वो नए लोगों से मिलना हो, नए दोस्त बनाना हो, अलग रीती-रिवाज़ों को जानना हो, या नयी भाषाएँ सीखना हो। यात्रा के दौरान हम इन सभी चीज़ों का लुफ्त उठा सकते हैं। जिन चीज़ों के बारे में हमने सिर्फ पढ़ा है और सीखा है। उन चीज़ों को हम असल में देखने के साथ-साथ महसूस भी कर सकते हैं। यात्राओं पर लेखन करने वाले विद्वानों ने इस लाभ को अहम माना है।
आज लोगों के सामाज में सम्बन्ध पहले के मुताबिक काफी कम हैं, और जो हैं वह ज्यादातर टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया के माध्यम से हैं। इसलिए यात्रा एक एडवेंचर है। नए लोगों को जानना और उनके तौर-तरीकों को समझना अपने में ही एक कला है। कभी-कभी हम उन लोगों के संपर्क में नहीं रह पाते जिनसे हम यात्रा के दौरान मिलते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि वो लोग हमें याद नहीं रहते। साथ ही कुछ संपर्क ऐसे बन जाते हैं जो हमेशा हमको नयी यात्राएं करने के लिए प्रेरित करते हैं। जिनको यात्रा करना पसंद नहीं है। वे यह सोच कर जा सकते हैं कि इससे हमारा सामाजिक दायरा बढ़ सकता है जो हर व्यक्ति की प्रगति के लिए ज़रूरी है।
काफी लोगों के लिए यात्रा करना मानसिक तनाव और चिंताओं का इलाज करने जैसा होता है। जिस तरह पूरे दिन कुर्सी पर बैठकर काम करने के बाद एक छोटी-सी कुछ मिनटों की वॉक हमारे शरीर और मस्तिष्क को राहत पहुँचाती है। उसी तरह यात्रा भी हमको रिफ्रेश करने के लिए महत्वपूर्ण है। घर पर आराम करना भी तनाव दूर कर सकता है लेकिन यात्रा हमको हमारे कम्फर्ट जोन से बाहर निकाल देती है।
कहावत हैं कि व्यक्ति की आदतें बहुत मुश्किल से बदलती हैं। लेकिन यात्रा के सन्दर्भ में यह बात गलत साबित हो सकती है, क्योंकि यात्रा हमें स्मार्ट और आत्मविश्वासी बना देती है। हमारे ज्ञान का संसार बढ़ जाता है। जिससे हमारे अंदर आत्मविश्वास आता है। साथ ही हमारा कम्फर्ट जोन आपसे अलग रह जाता है। जिसकी वजह से हम अपने आप में एक लचीलापन महसूस करते हैं।
ईश्वरीय ज्ञान मानी जाने वाली सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद में एक स्थान पर आता है कि हे मनुष्यों, तुम ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को देखो, परखो व जानों, जो न कभी नष्ट होती है, न पुरानी और जीर्ण होती है। दार्शनिक सिद्धान्त भी है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की सुन्दरता, भव्यता व रचनादि विशेष गुणों को देखकर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का ज्ञान होता है। अतः यात्रा का उद्देश्य ऐसे स्थानों पर जाना होता है। जो सुन्दर, सुविधापूर्ण, सुख की अनुभूति कराने वाले हों व इसके साथ वहां के लोगों के पहनावें, बोलचाल, व्यवहार, आचार व संस्कृति आदि का अनुभव कराने वाले हों। मनुष्य को सुखद जीवन व्यतीत करने के लिए संसार में जड़ व चेतन की संगति करना अपरिहार्य है। मनुष्य का जन्म ही संगति का परिणाम है। परिवार में बच्चों की माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, ताऊ-चाचा, ताई -चाची, बुआ आदि हुआ करती हैं। इनकी संगति व सहयोग से ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास व उन्नति हुआ करती है। इसके बाद वह अपने आचार्यों व सहपाठी विद्यार्थियों की संगति करते हैं। जिससे उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इसी प्रकार से वह जीवन-यात्रा में जिन-जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं उनकी संगति से भी उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इन सबसे व्यक्तित्व के निर्माण में लाभ होता है। यात्रा या पर्यटन का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से ही हो गया था। तिब्बत में लगभग दो अरब वर्ष पहले सृष्टि की रचना सम्पन्न होने, मनुष्य व प्राणी जगत की उत्पत्ति होने के बाद लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोग चारों ओर बढ़ते या फैलते गये। नये-नये स्थानों का अनुसंधान किया गया और वहां बस्तियां बसाईं गईं। आरम्भ में कुछ व्यक्ति 10, 20 या 50 बसे होगें। जो आज एक नगर या देश बन गये हैं। इस प्रकार से यात्रा का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ही हो गया था। जो सतत जारी है और आज भी समर्थ व सम्पन्न लोग समय-समय पर यात्रा कर अपनी उस प्रवृत्ति को पूरा करते हैं।
मनुष्यों में यात्रा की प्रवृत्ति जन्मजात या ईश्वर प्रदत्त एक गुण के रूप में है। इसी प्रवृत्ति के कारण सुदूर अतीत में धार्मिक पर्यटन का उद्भव हुआ था। विश्व की एकता व अखण्डता के लिए भी धार्मिक पर्यटन सहायक रहा है। जिससे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम के लोग उत्तर में हरिद्वार, ऋषिकेश, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानों पर आते हैं। यहां उत्तर भारत व अन्य स्थानों के लोग दक्षिण के रामेश्वरम्, मदुरै के विशाल भव्य मीनाक्षी मन्दिर, कांचीपुरम् के शंकराचार्य मठ, पश्चिम के सोमनाथ मन्दिर, द्वारिका, दिलवाड़ा व पालिताना मन्दिरों तथा पूर्व के कामाख्या, जगन्नाथपुरी, गंगासागर आदि स्थानों पर जाते हैं। जिससे पूरे देश की यात्रा और धर्म-कर्म हो जाता है। इस तरह देश व विदेश के सभी स्थानों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। एक विचारधारा होने से प्रेम व सहयोग की भावना उत्पन्न होती है। जिससे राष्ट्रीय एकता और विश्व बंधुत्व की भावना को बल मिलता है।