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"हे किसान ! डिजिटल हो जा या मर जा"

23 अप्रैल 2017

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बिना किसी चुनावी मौसम के,बिना किसी राजनैतिक पार्टी के झंडे के...राजधानी के केंद्र बिंदु में बैठ कर प्रदर्शन करना किसानों की निरक्षरता को प्रमाणित कर बैठा है।बिना चुनावी मौसम के तो नेता अपने घरवालों की न सुने..तुम किसान किस खेत की मूली हो। कुछ हद तक गलती किसानों की भी है।डिजिटल इंडिया के इस दौर में धरना देना, भूखे रहना, कंकाल-खोपड़ी ले आना और अपना पेशाब पी लेना...देश को उस दौर की ओर ढकेलता है जब ये सांप-संपेरों से जाना जाता था।आज जहां सिर्फ 1 ट्वीट करने पर रायपुर में बैठे पैसेंजर को बिलासपुर आते आते,यानी डेढ़ घंटे में समस्या का हल मिल जाता है,वहाँ आप भूख हड़ताल करके देश को क्यों पीछे ढकेलने में लगे हो ? किसानों को चाहिए वो घर लौट जाए.. रविवार को "मन की बात" सुने..आपको हल वही मिलेगा,न मिले तो आश्वाशन तो मिलेगा ही।इतने सालों से मिल रहा..पेट नहीं भरा क्या? और हो सके तो खुद को डिजिटल बनाइये..लोन लीजिये..सरकार ने स्कीम दी है नयी.. पढ़िए..स्मार्टफोन लीजिये, और जियो तो फ्री है ही।सरकार आपको डेटा फ्री दे रही और आप हो कि रोटी को लेकर रो रहे।फिर ट्विटर/फेसबुक पर नेताओ को टैग/मेंशन कर समस्याएं बताये..मुझे यकीन है आपकी समस्या जरूर सुनी जायेगी।और हाँ इस दौरान आपकी फसल की जो हानि होगी उसके लिए हम एडवांस में खेद प्रकट करते है,बाद में मत कहना हम ध्यान न देते।हे किसान..तुम्हे हक़ भाषणों में मिलेगा..जंतर मंतर पर सत्ता का सुख मिलेगा...हक़ नहीं।या तो डिजिटल हो जा या मर जा!

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रवि शंकर

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शानदार जबरजस्त जिंदाबाद, सार्थक लेख |

23 अप्रैल 2017

रेणु

रेणु

प्रिय पुष्पेन्द्र आपकी रचना एक सुंदर लेकिन मार्मिक व्यंग है | आपने बड़ी रोचकता से किसान को सचेत कर बड़ा ही दुस्साहसी निर्णय लिया है -- डिजिटल होजा या मर जा -- सचमुच सुचना क्रांति के इस युग में अडिजिटल होना मृत होने के सामान है | लगता है साहित्य में नया व्यंगकार दस्तक दे रहा है ---- एक उज्जवल भविष्य के साथ -- बहुत शुभकामना आपको -------

23 अप्रैल 2017

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत अच्छा लेख है यह आपका | ऐसे ही लिखते रहिये | बहुत बहुत शुभ कामनाएं |

23 अप्रैल 2017

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