गेहूं के आटे की लोईयां
पंक्ति बद्ध पड़ीं है।।
एक लोई को मैंने हाथ लगाया
दूसरी आशा से मुझे देखने लगी।।
पंक्ति में पड़ी लोईयां मुझे देखते हुए
शोर मचाने लगी दइया ये।।
हालात देख मैं गुस्साई और चिल्लाई
बोली,चुप हो जाओ तुम सब।।
सबकी बारी आयेगी।
सबका एक ही आगाज और अंजाम होगा।।
एक एक कर बेली जाओगी
सिकोगीं और किसी के मुंह का ग्रास बनोगी।।
यह जीवन भी ऐसा ही है।
सनेगें,बेले जायेंगे और आहिस्ता आहिस्ता
ग्रास बन हजम हो जायेंगे।।
यही दास्तां है ज़िन्दगी का।
आज हैं और पता नहीं है कल का।।