पिछले साल महामारी में बैठी मैं
होने वाली मौतों से आतंकित थी।।
आने वाले समय का सोच सोच कर
भावविह्वल और डर रहीं थीं।।
एक प्यारी सी मधुमक्खी सामने से
गुनगुनाते हुए निकली और बोली।।
आओ मेरे साथ, फूलों से मिलते हैं
तुम्हारे साथ आसमां को छूते हैं।।
जब तक जीवन है हम सबका।
जिन्दगी को प्रतिपल जीतें है।।
गुमसुम सी क्यों बैठी हो तुम।
छोड़ो और सोचों, ये तो स्वयं
इंसानियत की देन है।।
अहिंसा छोड़ हिंसा की दास्तां लिखने वाला
आज घरों में कैद हैं।।
प्रकृति ने रुप बदल इंसान को
उसकी जगह दिखाई है।।
स्वयं को भगवान समझने वाले को
अपने वजूद की एक छोटी झलक दिखलाई है।।
अपनी बनाई दुनिया में तुम सब कैद हो
हम स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं प्रकृति की गोद में।।