किसां जो रोटियां देता, जमाने भर को खाने की।
उसी के अन्न पर पलकर, करो बातें जमाने की।
किसी के बाप का कर्जा किसान ों पर नहीं बाकी,
तुम्हारी पीढियां कर्जे में है, हर एक दाने की ।।
लहू से सींचकर खेतों को, जो जीवन उगाता है,
जरा सी रोशनी देदो, उसे भी आशियाने की।।
खुदाओं की तरह, मेरी अकीदत के जो वारिस है,
उन्हें आदत निराली है, हमें अक्सर रुलाने की ।।
मुझे कोई भी मुझ जैसा, मनाने वाला हो 'मोहन'
ये ख्वाहिश है हमारी भी, कि थोड़ा रूठ जाने की ।।
ये गहरे जख्म रूहों पर, उमर भर के लिए आँसू,
यही कीमत चुकाई है, जरा सा मुस्कराने की ।।
शराफत के उसूलों पर, गुजारिश है कि जीने दो,
हमें भी क्या जरूरत है, तुम्हारे घर🏠 जलाने 🔥🔫की ।।
------मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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