हर संघर्ष को जीवन के, भीतर भीतर क्यों पाला जाए..
कभी तो रूह को कलम थमा, उसे शब्दों में भी ढाला जाए..
बस बाहर ढूँढने भर से, कुछ न हो जब हासिल..
खुद को भी देखा जाए, कभी भीतर भी तो खंगाला जाए..
जब हारने लगे मन, और टूटने लगे उम्मीदें..
खुद तो संभला ही जाए, औरो को भी संभाला जाए..
कल रात खुदा ने, एक गुफ्तगूँ में कहा..
घुट रहा है दम, मुझे मंदिर-मस्जिदों से निकाला जाए..
राज़ अपनी मुस्कानों के, बस राज़ रहने देता हूँ..
सूरत हो जब रूह में, नाम सरे-महफ़िल क्यों उछाला जाए..