हाड़ी रानी की गौरव गाथा:-
मेवाड़ के ठिकानों में से एक ठिकाना था सलूम्बर। वहां का रावत रतनसिंह एक चूंडावत सरदार था। उसके समय में मेवाड़ पर महाराणा राजसिंह प्रथम (वि.सं. 1706-1737) शासन कर रहे थे। तब दिल्ली का साम्राज्य औरंगजेब के हाथों में था। औरंगजेब रूपनगर के राठौड़ राजा रूपसिंह की पुत्री चारुमति, जो रूप और गुणों में अद्वितीय थी, से विवाह करना चाहता था। किन्तु चारुमति स्वयं को विधर्मी आततायी के हाथों सौंपना नहीं चाहती थी। राजकुमारी ने तब स्वधर्म की रक्षा के लिए और कोई उपाय न देख स्वयं को धर्म-रक्षक महाराणा राजसिंह के समक्ष अर्पित कर दिया था। महाराणा ने धर्म और शरणागत की रक्षार्थ औरंगजेब से मुकाबला करने का निश्चय किया।
यह तय किया कि एक ओर महाराणा रूपनगर की उस क्षत्रिय कुमारी से विवाह करने पहुँचेंगे तथा दूसरी ओर मेवाड़ की सेना रूपनगर आते हुए औरंगजेब को रोकेगी। चूंडावत सरदार, हाड़ी रानी से विवाह कर लौटा ही था कि उसे महाराणा राजसिंह की ओर से युद्धार्थ निमंत्रण मिला। युद्ध औरंगजेब के विरुद्ध था। विवाह के तुरन्त बाद ही रावत रतनसिंह चूण्डावत और हाड़ी रानी के जीवन में यह घटना घटी थी। शादी को महज एक सप्ताह ही हुआ था। रावत और हाड़ी के विवाह के कंकण भी नहीं खुल पाये थे, न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आल्ता।
सुबह का समय था, सरदार चूंडावत गहरी नींद में थे। रानी सज-धजकर राजा को जगाने आई। इस बीच दरबान आकर वहां खड़ा हो गया। राजा का ध्यान न जाने पर रानी ने कहा- ‘‘महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा है। आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है, उसे अभी देना जरूरी है।’’ उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा। ठाकुर ने दूत से कहा- ‘‘अरे शार्दूल तू ! इतनी सुबह कैसे ?’’ शार्दूल ने कहा- ‘‘सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई हैं।’’ सरदार चूंडावत का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी है। दूत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश लेकर आया था। अंत में जी कड़ा करके उसने सरदार चूंडावत के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था। उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने के लिए सरदार चूंडावत को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह अपने मित्र रतनसिंह चूंडावत के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब न करते हुए सरदार चूंडावत ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा।
केसरिया बाना पहने युद्ध वेश में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचंभित थी। कहां चले स्वामी ? इतनी जल्दी। अभी तो आप कह रहे थे कि चार-छः महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है, आराम से कटेगी। यह क्या ? आश्चर्यचकित भाव में हाड़ी रानी अपने पति से बोली। इस पर सरदार चूंडावत मुस्करा कर पत्नी से बोले- ‘‘प्रिय ! पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती है। वह शुभ घड़ी अब आ गई है। देश के शत्रुओं से दो-दो हाथ होने का अवसर मिला है। मुझे यहां से अविलंब निकालना है। हंसते-हंसते विदा दो पता नहीं फिर कभी भेंट हो या ना हो।’’ सरदार चूंडावत का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा तो मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा ? एक ओर कर्त्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी अन्तर्द्वन्द्व में उसका मन फंसा था। उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी।
विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है, यह हाड़ी रानी की तेज आंखों से छिपा न रह सका था। यद्यपि सरदार चूंडावत ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है, उस वीर बाला को यह समझते हुए देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्त्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली- ‘‘स्वामी जरा ठहरिए ! मैं अभी आई।’’ वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गयीं और आरती की थाली को सजाया। पति के मस्तक पर टीका लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली- ‘‘मैं धन्य हो गयीं, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा-आपका तो जन्म-जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं, आप जाएं स्वामी। मैं विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।’’ उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया। वह पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी। हाड़ी रानी बूंदी के हाड़ा शासक की वीर पुत्री थी, उसने परिस्थितियों को देखते हुए वीरता एवं प्रेरणास्वरूप सरदार चूंडावत को कहा-
‘‘सत-पथ चालो साहिबा, सत चाल्यां पथ आय।
सत की बांधी पाल सूं पथ आपां ही आय।।’’
चलते-चलते पति उससे बोला प्रिय। मैं तुमको कोई सुख न दे सका, बस इसका ही दुःख है। यदि मैं न रहा तो...........। उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी। ना-ना स्वामी ! ऐसी अषुभ बातें न बोलों। मैं वीर राजपूतनी हूं, फिर वीर की पत्नी भी हूं। अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निश्चिंत होकर प्रस्थान करें। देष के शत्रुओं के दांत खट्टे करें। यही मेरी आपसे प्रार्थना है। सरदार चूंडावत ने घोड़े को ऐड़ लगायी। रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखों से ओझल न हो गया। उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला।
सरदार चूंडावत अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था। किन्तु उसके मन में रह-रह कर रानी की यादें आ रही थी, वह मन को समझाता पर उसका ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों को रानी के पास भेजा। उसकों फिर से स्मरण कराया कि मैं जरूर लौटूंगा, आप धैर्य रखे। संदेश वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसरे दिन एक और संदेश वाहक आया। फिर वहीं बात। तीसरे दिन फिर एक संदेश वाहक आया। इस बार वह पत्नी के नाम सरदार चूंडावत का पत्र लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं। अंगद के समान पैर जमा कर उनको रोक दिया है। मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है। संदेश वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करूंगा।
हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयीं। युद्धरत् पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा तो उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे ? उसके मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली- ‘‘वीर ! मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे देना। थाली में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना किन्तु इसे कोई और न देखे, वे ही खोलकर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी उनको दे देना।’’ हाड़ी रानी ने पत्र में लिखा था- ‘‘प्रिय ! मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफिक्र होकर अपने कर्त्तव्य का पालन करें, मैं तो चली..... स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी।’’ पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक ही झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। वह धरती पर लुढ़क पड़ी। सिपाही के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। कर्त्तव्य-कर्म कठोर होता है। सैनिक ने स्वर्ण थाली में हाड़ी रानी के कटे हुए सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका और भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा।
‘‘चूण्डावत मांगी सैनाणी,
सिर काट दे दियो क्षत्राणी।’’
सरदार चूंडावत धीरे से बोला क्यों यदुसिंह, रानी की निशानी ले आए ? यदु ने कांपते हाथों से थाली उसकी ओर बढ़ा दी। सरदार चूंडावत फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख से केवल इतना निकला उफ् हाय रानी, तुमने यह क्या कर डाला। मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।
सरदार चूंडावत के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। उसका अपार शौर्य जागृत हो उठा। वह हाड़ी रानी के मुंड को अपने गले में धारण कर समर-भूमि में पहुंचा, वह शत्रु पर टूट पड़ा। जहां उसने औरंगजेब की सेना को थर्रा दिया। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नहीं बढ़ने दिया। वह तब तक लड़ता रहा, जब तक महाराणा राजसिंह, चारुमति से विवाह कर उदयपुर सकुशल नहीं पहुंच गये। वह जीवन की आखिरी सांस तक लड़ता रहा और मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग गया। चूंडा सरदार रतनसिंह मेवाड़ के ही पराक्रमी सिसोदिया वंश की शाखा के चूण्डा का वंशज था। हाड़ी रानी के अपूर्व शौर्य और महान् बलिदान की अद्भुत गाथा भारतीय जनमानस में गहरे तक समायी हुई है। उसने अनेक कवि-कोविदों को मुग्ध किया एवं लिखने की प्रेरणा दी है।
अवरंग रंग फीको हुवो,
हुई हिंदवाण अनूप।
हाड़ी सिर दे राखियो,
रूपनगढ़ रो रूप।।
वीरांगना हाड़ी रानी ने अपने ही हाथों अपना मस्तक काटकर जब रूपनगर के सौन्दर्य की रक्षा की, तब एक ओर औरंगजेब की कान्ति फीकी पड़ गई, दूसरी ओर समूचे हिन्दुस्तान और विश्व में वीरांगना हाड़ी रानी की वीरता दीप्तिमान् हो उठी। जो आज भी जनमानस को प्रेरणा प्रदान करती हैं।