अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ
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अंधकार में रहने का मैं अभ्यासी हूँ
मुझे उजालों से भी नफ़रत कभी नहीं थी,
सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थी
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।
एक प्रहर में जलकर कांति बिखेरी मैंने
और दूसरे वक्त तृषित हो मुरझाया था,
अंतकाल में देहतुल्य जल गयी वर्तिका
लौ को अपने अंतस में ही बिखराया था।
मैं तो उजियारों का दाता रहा सदा से
ख़ुद को भवित वेदना मुझको खली नहीं थी,
कर्तव्यों से अति घनिष्ठ नाता जन्मों का
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।
चलन, दौर का मुझपर थोप चुके थे साथी
ड्योढ़ी पर तस्वीर टाँग कर वंदन करते,
निज प्रभुता में चूर कुंजरों से विशृंखल
निंदनीय नारे केवल अभिनंदन करते।
चाल समय की अवगुंठित, निर्मम हो बैठी
मगर नयन में मेरे कोई नमी नहीं थी,
सबकी चाह दिखावे तक ही सिमट चुकी थी
मुझे जलाने वालों की भी कमी नहीं थी।
...“निश्छल”