सीन बदलता है सुनसान चौराहा साँवला फैला, बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर, ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद, साँवली हवाओं में काल टहलता है। रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे, मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या जाग्रति शुरू है। दिया जल रहा है, पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है, आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी अलग व दूर-दूर निर्जीव!! यह सि
सूनापन सिहरा, अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे, शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की, मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर, छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें मीठी है दुःसह!! अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह बजती है