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आने वाली पीढ़ी के लिए साहित्य स्रजक हम

30 नवम्बर 2021

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साहित्य समाज का दर्पण होता है ।
प्रत्येक बीते हुए समय को जानने के लिए , हमारे लिए तत्कालीन साहित्य सहायक होता है ।उस समय के साहित्य के द्वारा ही ,हम उस काल की मानसिकता से लेकर रहन सहन और तत्कालीन संस्कृति के बारे में जान पाते हैं।हमाराआज ,आने वाले कल के दिन बीता हुआ कल हो जाएगा ,और एक इतिहास बनकर हमारी यादों में समा जाएगा ।
आज को स्वर्णिम इतिहास बनाने के लिए ,हमें एक अच्छी सोच अपने भीतर जागृत करनी चाहिए।
समाज में क्या गलत हो रहा है ,इसकी अवहेलना कर अच्छे मुद्दों को अपनी सोच और चर्चा में भागीदार बनाना चाहिए। जिस से आने वाली पीढ़ियां हमारे आज से प्रभावित हो। अपने समाज की हर अच्छी उपलब्धि को ,संस्कृति को, अपने कविताओं कहानीयों में बहुत सुंदर शब्दों में जीवंत करना चाहिए ,जिसको पढ़ कर आगे वाली पीढ़ी हमारी संस्कृति के लिएवाह-वाह कहें ।
आज की कथा कहानियों में मैं देखती हूं लेखक किसी भी जटिल मुद्दे को ,एक समस्या की तरह अपनी रचना की कथावस्तु बनाते हैं ।
हर कोई या पांच में से दो लोग समाज में फैली अव्यवस्था से परेशान है,कोई दहेज प्रथा से तो कोई( कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे हैं वृद्धाश्रम) यह कहकर वृद्धों के प्रति संवेदनशील बनता दिखाई देने की कोशिश करता है ।
हर कोई वृद्धाश्रम का विरोधी है ,तो वृद्धाश्रम खोल कौन रहा है ।अगर हम इस विषय को अपने साहित्य का हिस्सा बनाएंगे तो आने वाली पीढ़ी हमसे जरूर पूछेंगे , बृद्धाश्रम आपने नहीं खोले ,और आपने भी नहीं खोले तो किसने खोलें ।
छोटी-छोटी बातों में अपने सुखद अनुभव को अपने साहित्य का हिस्सा बनाने की कोशिश कर ,स्वर्णिम साहित्य को आने वाली पीढ़ी को देने के लिए हम एक बहुत सुंदर पहल कर सकते हैं ।
एक समस्या पर लिखना या उस समस्या पर बहुत बड़ी रचना लिखना आसान है ,पर एक सुखद अनुभूति के लिए शब्दों को माया जाल में फंसाना ,थोड़ा कठिन हो जाता है।
  हम सकारात्मक पहलुओं को अपनी कृतियों का विषय बनाकर विस्तार दें, तो एक बहुत सुंदर साहित्यिक विकसित परिकल्पना हम कर सकते हैं ।
  हमारे आज के युग में जितना लिखा जा रहा है, सब पढ़ लिख कर अपनी भावनाओं को शब्द दे रहे हैं ,इतना किसी भी काल में लिखा नहीं गया ,पर देखती हूं अधिकतर लोग किसी ना किसी समस्या को अपने साहित्य का विषय बना कर विस्तार दे रहे हैं।
  साहित्य में ज्यादा से ज्यादा लिखने से अच्छा है ,सार्थक, सटीक, प्रेरणादायक,सकारात्मक,और विशिष्ट आनन्दान्भूति वाला हो ।
  रामचरितमानस जैसा सुखदायक ग्रन्थ वर्षों बाद भी अतुलनीय है ।अपने को अनपढ कहने वाले कबीर के दोहों पर बडी बडी यूनिवर्सिटी में रिसर्च हो रही है ।
  सूरदास के पदों का आनन्द अद्वितीय है ।बिहारी की सतसई ज्ञान का भंडार है ,प्रसाद की कामायनी को आज साहित्य का स्तम्भ कहें तो गलत न होगा । कामायनी में (प्रभा की धारा से अभिषेक) शब्दों को  काव्य सौष्ठव से सुसज्जित किया है ,हर किसी के लिए कल्पना करना अकल्पनीय है ।
  मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा ,पंचवटी ,संपूर्ण भावपूर्ण आनंद से पाठक को सराबोर करती है ।
  पिछली सदी के हर कवि का लेखक उत्कृष्ट या चरम शिखर पर है ।रामधारी सिंह दिनकर का एक एक शब्द लोगों को यथाशक्ति का भान कराता हुआ जागृत करता है।
  छायावाद के कवियों का प्रकृति सौंदर्य चित्रण कवियों की नैसर्गिक प्रतिभा का परिचायक हैं ।
रवीन्द्र नाथ टैगोर   की गीतांजलि अपने आप में नोबेल है उसकी पहुंच तक हमारी कल्पना अगम्य है ।
    कुछ तो बात है ,कि हरिवंश राय बच्चन जब मधुशाला के पद लिखकर अपने हॉस्टल के संगी साथियों को सुनाते थे तो पूरी रात लोग काव्य रस में ही डूब जाते थे  ।
    काव्य के साथ ही हमारा गद्य साहित्य भी अपने समय की परिस्थिति का पूर्ण परिचायक है,  गूढ अर्थों से सुसज्जित और परिपूर्ण रामचंद्र शुक्ल के निबंध अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं ।
    देवकी नन्दन खत्री की चन्द्र कान्ता सन्तति पढने का अपना ही तिलिस्म है ,रचना को पढ़ते पढ़ते वीरेंद्र सिंह के साथ पाठक भी अपने आप को तिलिस्म में पाता है। यशपाल की कहानी पर्दा पाठक को अपना अभिन्न अंग बनाए रखती है ।
    प्रेमचंद की कहानी उपन्यास  जहां पूर्णसर्वहारा  के पूर्ण समाज की परिस्थतियों के परिचायक है  ।
    वहीं भीष्म साहनी की कहानियां  तो पाठकों को अपने मोह पास में ऐसे बांधती हैं ,कि पात्र उनकी कहानियों के भीतर अपने आपको पाता है ,जहां  अहंकार कहानी में पाठक राजा के आसपास अपने को पाता है ,वही दो गौरैया कहानी में नायक की बैठक में अपने आप को बैठा हुआ पाकर आनंदित होता है ।
    भीष्म साहनी की प्रत्येक कहानी पाठक को अपने आप स्वयं उस कहानी का पात्र समझने में तनिक भी
परहेज नहीं करती ।पाठक स्वयं अपने आप को उस कहानी का केंद्र बिंदु मानकर कहानी के मोहपास में बन्धा रहता है ।
1924 मैं लिखा गया गणेश शंकर विद्यार्थी का निबंध( धर्म की आड़ )की परिस्थितियां आज भी ज्यों की त्यों है।        कालजई लेखक और लेखन के लिए लेखक का पूर्ण समर्पण होना अति अनिवार्य है।
  मेरे श्रद्धेय सर डॉक्टर  गिरजानंद त्रिगुणायत का कहना था, लेखक की तरह गंभीर पाठक होना भी, अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है ।
   पाठक और श्रोता का आनंदित होना लेखक की पूर्ण सफलता है ।
   एक अच्छा साहित्य भविष्य के लिए तैयार करने के लिए हमें माधुर्य पूर्ण परंपरा का एहसास अपने भीतर पैदा करना होगा ,।
   दूसरे लेखक के प्रति द्वेष नहीं अपितु सहयोग होना चाहिए सहयोग ऐसा जो लेखक की रचना को समझे , प्रतिक्रिया के द्वारा उचित सम्मान प्रदान करें और लेखक को एक स्वर्णिम साहित्य तैयार करने के लिए कलम को कुशलता से चलाना है अपनी रचनाओं में भावनाओं के साथ कथावस्तु को सुसज्जित करना है ।
  लेखक को कलम को चलाना है ,ना कि किसी को  पछाड़ने के लिए कलम को घिसना नहीं है ।
  हमारा साहित्य लेखन  किसी प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के लिए नहीं, अपितु स्वाध्याय का विषय होना चाहिए हमें अपनी रचना से सबसे पहले स्वयं को आनंदित करना होगा
  
आज भी लोग लिख रहे हैं, पर  अपने  लेखन का उचित मान-सम्मान ना पाकर, या अपनी योग्यता से कम दूसरे के साहित्य को अपने से ऊपर पाकर ,कुछ द्रवित हो जाते हैं और अपनी लेखन शैली को प्रभावित करते हैं हमें अपने लेखन को संकुचित संकीर्णता से निकालकर केवल अपना शत-प्रतिशत देने की कोशिश करनी चाहिए।

वणिका दुबे "जिज्जी"

वणिका दुबे "जिज्जी"

बहुत ही सुंदर और यथार्थ वर्णन

1 दिसम्बर 2021

संजय पाटील

संजय पाटील

इस बात से मै भी सहमत हूँ 👌

30 नवम्बर 2021

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रचनाएँ
हम और हमारे अहसास
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हमारे आंगन की शान रही चारपाई ,शान चारपाई से नहीं उस पर बैठी हमारी अम्माजी से बढ़ती थी। 95 साल की उम्र में भी अम्माजी को दिनभर बिस्तर पर लेटे पड़े रहना पसंद ना था ,और ना ही दिन भर अपने बिस्तर बिछे रहने देती । अरे हां सच में आज की तरह दिनभर बिस्तर बिछे नहीं रहते थे और ना ही बिस्तरों पर सुबह दरे तक पड़े रहने का रिवाज था अपने आप सभी लोग सवेरे जल्दी उठ जाते। आजकल के बच्चों को स्कूल के लिए जगाने का रिवाज ना था ,और ना ही माता-पिता को उनके आगे पीछे नाचने की जरूरत होती ,प्यारे हम भी थे पर आजकल की तरह आकर्षण का केंद्र नहीं थे । सब लोग उठे बिस्तर तह कर के साइड में रखतेें और सभी चारपाई एक साइड में लगा दी जाती, हां बैठक जिसको आज का नाम बैठक नहीं ड्राइंग रूम कहते हैं जहां कलात्मक चीजों के साथ खुद भी मैनर्स फॉलो करते हुए कलात्मक बन कर बैठना पड़ता है ,मजाल क्या बैड या सोफे के कवर हिल जाएं,तुरंत मैडम के प्रवचन शुरू याद है, मिस्टर ढिल्लन का ड्राइंग रूम, एक एक चीज की कितने करीने से सजी हुई थी,  एक एक चीज लाजवाब और एन्टिक, हमारे यहां तो घर मेन्टेन करने का सलीका ही नहीं । अरे मैं भी कहां पहुंच गई, तो हमारे यहां बैठक में हीं पलंग बिछा होता ,और कुर्सियां पड़ी होती ,लोग हमसे मिलने आते थे हमारे ड्राइंग रूम के शोपीस से नहीं । अम्मा जी की चारपाई पर हम सभी बच्चे जगह बनाने की कोशिश करते ,हमारी यह कोशिश ही अम्माजी को चरम सुख प्रदान करती। अम्माजी बीचोंबीच आंगन में चारपाई पर बैठती ,जहां से सब उनकी निगाह में रहते, पर कभी किसी को रोकना टोकना उनका स्वभाव ना रहा, और सभी उनके पास आकर बैठने की कोशिश किए रहते । अम्माजी की चारपाई के पास चौकियां मूड्ढी पड़ी रहतीं, जमीन पर चटाई बिछाकर बैठने में हमारे घुटने जवाब ना देते । अम्माजी का स्वभाव सबको सुनने का था, उस समय बड़ों का कहना मानना अनिवार्यता होती और सबके लिए होती। आज भी अम्मा जी को याद करती हूं तो अम्मा जी को आंगन में चारपाई पर बैठे-बैठे महसूस करती हूं ।कभी-कभी जब फोटोग्राफर किसी खास मौके पर बुलाया जाता तो फैमिली फोटोग्राफ के लिए अम्माजी को कुर्सी पर बैठाकर अम्मा जी के दोनों तरफ दो दो करके उनके चारों बेटे और पीछे बहू खड़ी हो जातीं, औरआगे फर्श पर हम सब उनके पोते पोती बैठ जाते । यह होता हमारा फोटो सेशन, ना कोई सजने संवरने का तामझाम, ना ही रीटेक का झंझट । आज

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