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यादों की खिड़की

5 दिसम्बर 2021

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बीसवीं सदी से आए हुए हम ,जब 21वीं सदी के लोगों को नववर्ष मनाते देखते हैं, तो बहुत कुछ क्या सब कुछ नया नया ही पाते हैं ,।
बच्चे बच्चे के हाथ में फोन की संस्कृति पुरानी तो नहीं। हमारी सदी में दिल के उद्गार होठों के माध्यम से अपने लोगों के बीच मिठास घोलते थे ,अब होंठ चुप है अब फोन के कीबोर्ड पर चलती अंगुलियां बोलती हैं ,और आपसी संबंधों को औपचारिकता के तराजू में तोल देती हैं ।
चरण स्पर्श ,प्रणाम ,नमस्ते शब्द दुर्लभ हो चुके हैं ,महानगरों में पैर छूने के नाम पर घुटने तक अंगुलियां पहुंच जाएं तो अपने को धन्य समझने में कतई देर नहीं करनी चाहिए।
सुबह उठने के फायदे और कारण हमारी अम्मा जी की बातों में विराजते थे ,सुबह नहा कर  बड़ों को सूरज को जल चढ़ाने की परंपरा बच्चे बखूबी निभाते किसी बच्चे की उत्सुकता बेमतलब प्रश्न करने की ना होती, बड़े कर रहे हैं तो हमें करना ही है ,यह सोच  सभी धार्मिक परंपराओं को हम सींचते रहते थे ।
नए साल के पहले दिन हम जितनी जल्दी उठेंगे ,तो साल भर जल्दी उठेंगे ,अम्माजी की इस बात को हमारा पूरा परिवार फॉलो करता ,आजकल नए साल का स्वागत आधी रात तक चली न्यू ईयर पार्टी के द्वारा होता है और आधी रात तक न्यू ईयर की वेलकम पार्टी होती है ,तो इन पार्टी कार्यकर्ताओं का ब्रह्म मुहूर्त तो दोपहर में अंगड़ाई तोड़ते हुए गुड मॉर्निंग बोलते हुए होता है, फिर सबसे पहले फोन का चरण स्पर्श कर न्यू ईयर विश करने का आदान-प्रदान मैसेज से शुरू  होता है ।
घर में कुछ आलतू फालतू लोग हैं जिनके पास फोन नहीं है या किचन संभालने में ही अपने को सौभाग्यशाली समझती रहती है ,वह इनके चेहरे पर फोन  पर आई मंद सी मुस्कुराहट देख अनुमान लगाती है कि जरूर कोई फनी मैसेज है ।  मम्मीयों  को वीडियो कॉल करता देख नई पीढ़ी मुफ्त की सलाह दे देती है मम्मी को , ईयर फोन लगाने की।
   एक हमारे जमाने में व्हाट्सएप तो था नहीं व्हाट्सएप के बारे में सपने में भी ना सोचा था, फोन ही हमारी कल्पना में ना था ,कभी सोचा ही ना था कि कभी फोन हमारे हाथ में होगा ,हम इसको लिए इधर-उधर इतराते में घूमेंगे ,।
हमारे जमाने में न्यू ईयर ग्रीटिंग कार्ड होते थे, हफ्ते भर पहले कार्ड खरीद कर टीचर्स के नाम लिखकर ,और कुछ भी छोटा सा सम्मान भरा संदेश लिखकर टीचर्स को कार्ड देना बहुत सुखद अनुभूति वाला होता ।
आपस में हम बच्चे भी अपने खास दोस्तों को ग्रीटिंग कार्ड दे कर खुशी का इजहार करते ।
विंटर वेकेशन जैसी छुट्टियों की जरूरत हमारी पीढ़ी के बच्चों को ना थी ,क्योंकि हम मजबूत जो थे ।ए सी का नाम ना सुना था मैंने ।
घर में बैठक में लगा कूलर गौरव की बात होती, गर्मियों में तेज धूप परेशान ना करती, हाथ के पंखों से भी गर्मी दूर हो जाती ।
घर में रखा फ्रिज पड़ोसियों को भी ठंडा पानी पिला देता। कितनी मनमोहक है वह सुनहरी याद जब 1984 में  हमारे घर टीवी आया था ,उससे पहले बहुत बड़े-बड़े एंटीना होते थे घर की छत से गिन सकते थे शहर के टीवी ,1984 में हमारे शहर शाहजहॉनपुर में दूरदर्शन का टावर लगा ,अधिकतर लोगों ने टीवी खरीदें छोटे छोटे एन्टीने वाले।नई पीढ़ी के पास उसकी कल्पना भी नहीं ,यहां तो घर-घर लगी डिस को ही पहचानते हैं।
दूरदर्शन टावर लगने पर सबके घर ब्लैक एंड व्हाइट टीवी आए ,पहले टीवी केबल शाम 5:00 बजे से रात 11:30 बजे तक ही आता था ,
बुधवार और शुक्रवार को रात 8:00 बजे आधा घंटा वाला चित्रहार का इंतजार हम सबको रहता गुरूवार और रविवार को शाम की पिक्चर देखने के लिए पूरा मोहल्ला इकट्ठा होता था हमारे आंगन में ,हम बहुत छोटे थे पर उन सब का उन सब का उल्लास आज भी आनन्दित करता है।
आज जब एक एक घर में चार चार टीवी हो ,घर के लोगों की मनोरंजन की पसंद ही एक न हो तो ,ऐसी पीढ़ी से उस मोहल्ला संस्कृति की बात करना अपने आप अपना उपहास उड़ाना सरीखा है

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रचनाएँ
हम और हमारे अहसास
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हमारे आंगन की शान रही चारपाई ,शान चारपाई से नहीं उस पर बैठी हमारी अम्माजी से बढ़ती थी। 95 साल की उम्र में भी अम्माजी को दिनभर बिस्तर पर लेटे पड़े रहना पसंद ना था ,और ना ही दिन भर अपने बिस्तर बिछे रहने देती । अरे हां सच में आज की तरह दिनभर बिस्तर बिछे नहीं रहते थे और ना ही बिस्तरों पर सुबह दरे तक पड़े रहने का रिवाज था अपने आप सभी लोग सवेरे जल्दी उठ जाते। आजकल के बच्चों को स्कूल के लिए जगाने का रिवाज ना था ,और ना ही माता-पिता को उनके आगे पीछे नाचने की जरूरत होती ,प्यारे हम भी थे पर आजकल की तरह आकर्षण का केंद्र नहीं थे । सब लोग उठे बिस्तर तह कर के साइड में रखतेें और सभी चारपाई एक साइड में लगा दी जाती, हां बैठक जिसको आज का नाम बैठक नहीं ड्राइंग रूम कहते हैं जहां कलात्मक चीजों के साथ खुद भी मैनर्स फॉलो करते हुए कलात्मक बन कर बैठना पड़ता है ,मजाल क्या बैड या सोफे के कवर हिल जाएं,तुरंत मैडम के प्रवचन शुरू याद है, मिस्टर ढिल्लन का ड्राइंग रूम, एक एक चीज की कितने करीने से सजी हुई थी,  एक एक चीज लाजवाब और एन्टिक, हमारे यहां तो घर मेन्टेन करने का सलीका ही नहीं । अरे मैं भी कहां पहुंच गई, तो हमारे यहां बैठक में हीं पलंग बिछा होता ,और कुर्सियां पड़ी होती ,लोग हमसे मिलने आते थे हमारे ड्राइंग रूम के शोपीस से नहीं । अम्मा जी की चारपाई पर हम सभी बच्चे जगह बनाने की कोशिश करते ,हमारी यह कोशिश ही अम्माजी को चरम सुख प्रदान करती। अम्माजी बीचोंबीच आंगन में चारपाई पर बैठती ,जहां से सब उनकी निगाह में रहते, पर कभी किसी को रोकना टोकना उनका स्वभाव ना रहा, और सभी उनके पास आकर बैठने की कोशिश किए रहते । अम्माजी की चारपाई के पास चौकियां मूड्ढी पड़ी रहतीं, जमीन पर चटाई बिछाकर बैठने में हमारे घुटने जवाब ना देते । अम्माजी का स्वभाव सबको सुनने का था, उस समय बड़ों का कहना मानना अनिवार्यता होती और सबके लिए होती। आज भी अम्मा जी को याद करती हूं तो अम्मा जी को आंगन में चारपाई पर बैठे-बैठे महसूस करती हूं ।कभी-कभी जब फोटोग्राफर किसी खास मौके पर बुलाया जाता तो फैमिली फोटोग्राफ के लिए अम्माजी को कुर्सी पर बैठाकर अम्मा जी के दोनों तरफ दो दो करके उनके चारों बेटे और पीछे बहू खड़ी हो जातीं, औरआगे फर्श पर हम सब उनके पोते पोती बैठ जाते । यह होता हमारा फोटो सेशन, ना कोई सजने संवरने का तामझाम, ना ही रीटेक का झंझट । आज

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