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अपनी बर्बाद फसल को देखते हुये मैंने एक किसान से कहा कि ...

23 मार्च 2015

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सिर को पकडे हुये अपनी बर्बाद फसल को कातर निगाहों से देखते हुये मैंने एक किसान से कहा कि चल उठ मन की बात ही सुन ले सुकून मिलेगा।  वह उठा और अपने मन की जो सुनायी वह बयान करता हूँ----  बोला " कहाँ जाऊँ मैं अपनी यह बर्बाद फसल लेकर; सोचता हूँ मर जाऊँ इसी आम के पेड़ पर लटक कर;  घर जाऊँ कैसे? मेरी बूढी माँ बैठी होगी खाट से लिपट कर; बूढ़ा पिता सहला रहा होगा हाथ उसका सिराहने में बैठ कर;  आखिर कहाँ जाऊँ मैं अपनी इस बर्बाद किस्मत को लेकर; सोचता हूँ मर जाऊँ इसी कुँए में कूद कर!  घर जाऊं कैसे बेटी इन्तजार में होगी; कि मैं लाऊँगा जोड़ा शादी का लेकर!  बेटा खड़ा होगा जाने को तैयार शहर; अगली पढ़ाई के लिये मुझ से फीस लेकर;  आखिर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ मैं अपनी बर्बाद ज़िन्दगी ले के; घर जाऊँ भी तो कैसे घरवाली पड़ी उजड़े खेत में लाश बन के!" 


रवि बगोटी 'सरल' 

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

हृदय की गहराइयों को छूती रचना पर बहुत बहुत बधाई सरल जी,....वर्तमान के किसान की वास्विकता को बहुत ही मार्मिक तरीके से कागज पर उकेर कर रख दिया आपने |

16 अगस्त 2017

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