- औकात (लघुकथा)
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- हरे बबूल पर छाई अमरबेल ने, जब पास सूखे ठूँठ पर लोकी की बेल को नित हाथों बढते देखा तो ,वो अन्दर ही अन्दर
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- > उससे ईर्ष्या करने लगी । एक दिन तो उससे रहा नहीं गया और कहने लगी- अरे, ओ लोकी की बेल ! तू मुझे दिखा-दिखा कर
- > ,क्या अपने चौड़े -चौड़े पत्तों को हिलाती
- > है, फूलों को खिलाती है और लम्बी -लम्बी लोकी देने लगी है । तुझे पता भी है, तू कितने दिन रहेगी ? वर्षा के मौसम के साथ-साथ तेरा भी पता नहीं चलेगा कहाँ
- > गई ?? मुझे देख ,मैं वर्षा से पहले भी थी,
- > आज भी हूँ, और आगे भी रहूंगी ।
- > अमरबेल की बात सुन ,लोकी की बेल
- > बोली- बहिन, तुम ठीक कहती हो, मेरी उम्र
- > अधिक नहीं है पर मैं खुश हूँ क्योंकि मैं अल्प जीवन में भी इस सूखे पेड़ को हरेपन
- > का अहसास करा कर , उसे साहचर्य का सुख देकर अपने को धन्य जो मानती हूँ ।
- > अगर हम थोड़े जीवन में भी किसी को सुख
- > व खुशी दे जाएं तो वो अल्प जीवन भी बहुत बड़ा लगने लगता है । एक तुम हो ,
- > अमरबेल ! वास्तव में तुम्हारी उम्र मुझसे
- > बहुत है पर ,तुम्हारा जीवन ,दूसरों पर आश्रित जीवन है तुम हमेशा दूसरों का शोषण कर अधिक जीवित रहती हो,
- > तुम्हें जो भी पेड़ अपने सिर पर बैठा कर
- > , तुम्हें मान देता है , जान देता है, तुम अपने जीवन को बचाने के प्रयास में उसी को
- > पल-पल नष्ट करने पर तुली रहतीं हो।
- > और एक दिन तुम उस हरे- भरे पेड़ को
- > सूखा ठूंठ बना देती हो । फिर मेरे जैसी
- > कोई बेल उसे पुनः जीवन तो नहीं दे पाती पर कुछ दिनों के लिए ही सही ,उसे हरेपन
- > का अहसास तो करा ही देती है ।
- > लोकी की बेल की बात सुनकर, अमरबेल निरुत्तर हो गई ,उसे अपनी 'औकात' का पता चल चुका था ...
- > - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
- > > > कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी ,
- > > > स. मा.,(राज०)322201