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औरत (ग़ज़ल)

16 सितम्बर 2015

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तपिश ज़ज़्बातों की मन में, न जाने क्यों बढ़ी जाती ? मैं औरत हूँ तो औरत हूँ, मग़र अबला कही जाती । उजाला घर मे जो करती, उजालों से ही डरती है । वह घर के ही उजालों से, न जाने क्यों डरी जाती ? जो नदिया है परम् पावन, बुझाती प्यास तन मन की । समन्दर में मग़र प्यासी, वही नदिया मरी जाती । इज़्ज़त है जो घर-घर की, वही बेइज़्ज़त होती है । रिवाज़ों के लबादों से, वही इज़्ज़त दबी जाती । औरत तब भी औरत थी, औरत अब भी औरत है । न जानें क्यों इस दुनियाँ से, ये दुनियाँदारी नहीं जाती ।।
राघवेन्द्र कुमार

राघवेन्द्र कुमार

धन्यवाद विजय कुमार शर्मा जी...

21 सितम्बर 2015

विजय कुमार शर्मा

विजय कुमार शर्मा

सत्य का दर्पण दर्शाती एक उत्कृष्ट रचना

20 सितम्बर 2015

राघवेन्द्र कुमार

राघवेन्द्र कुमार

धन्यवाद वर्तिका जी...

17 सितम्बर 2015

वर्तिका

वर्तिका

सुंदर रचना के लिए बधाई! एक औरत की उलझन को बखूबी ब्यान किया हैं|

16 सितम्बर 2015

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रचनाएँ
thinkers
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शब्द-शब्द फूल बन कविता की बेल में गुँथा लहरा रहा द्रुम डाल पर उन्मुक्त और मुक्त इस अनुपम सृजन की सराहना कर ।। राघवेन्द्र कुमार "राघव"
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औरत (ग़ज़ल)

16 सितम्बर 2015
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तपिश ज़ज़्बातों की मन में,न जाने क्यों बढ़ी जाती ?मैं औरत हूँ तो औरत हूँ,मग़र अबला कही जाती ।उजाला घर मे जो करती,उजालों से ही डरती है ।वह घर के ही उजालों से,न जाने क्यों डरी जाती ?जो नदिया है परम् पावन,बुझाती प्यास तन मन की ।समन्दर में मग़र प्यासी,वही नदिया मरी जाती ।इज़्ज़त है जो घर-घर की,वही बेइज़

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अपने ही सितमगर...

18 सितम्बर 2015
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उस आग की लपटें अभी महसूस होती हैं ,जल रहे गुलशन की आहें नज़्म होती हैं ।दर-ओ-दीवार रोती है सिसककर याद कर जिसको ,वतन की आत्मा फिर आज वो मंज़र देख रोती है ।वतन पर जो हुए क़ुर्बान ये हालत देख रोते हैं ,अपने ही सितमग़र हैं सितम चहुँ ओर होते हैं ।क्या चाहा था क्या मिला कुछ समझ आता नहीं,शहादत पर हमारी ही यह

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बुढ़ापा

22 सितम्बर 2015
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अंगों में भरी शिथिलतानज़र कमज़ोर हो गयी ।देह को कसा झुर्रियों नेबालों की स्याह गयी ।ख़ून भी पानी बनकरदूर तक बहने लगा ।जीवन का यह छोरआज अब डसने लगा ।चलते चलते भूल गयाकितनी देर हो गयी ।अंगों में भरी शिथिलतानज़र कमज़ोर हो गयी ।।जिनके लिए दिन रातउम्र भर व्यय किए ।आज उन्होंने ही देखोकितने ज़ुल्मोसितम किए

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धन लोलुपता

27 सितम्बर 2015
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हरे नोटों के सामने,पतिव्रत धर्म बिकता है ।नारी की इस्मत बिकती है,पायल का रागबिकता है ।।खुल जाते हैं बन्द दरवाजे, चन्द सिक्कों की खनकार से।बिक जाते ईमान यहाँ, कुछ सिक्कों की बौछार से ।कैसे करें आस-ए-वफ़ा, ऐतबार यहाँ बिकता है ।हरे नोटों के सामने,पतिव्रत धर्म बिकता है ।थोड़े से पैसे की खातिर, बहन बेंच

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निरीहों की चिन्ता

11 अक्टूबर 2015
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एक दिन मैं टहलने,गया नदी के पास ।दो भेड़ें हमें मिलीं,करते हुए बकवास ।हम इन्सानों के प्रति,उनमें भरा रोष था ।मानव मीमांसा में उनकी,नर नहीं पिशाच था ।उनके शब्दों में उनकी पीड़ा,स्पष्ट नज़र आ रही थी ।शायद इसलिए ही भेड़ें,कुछ इस तरह विचार कर रही थीं ।पहले तो हम सभी को,शेर चीते ही खाते थे ।अक्सर हम उनसे

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आधुनिक लव

22 अक्टूबर 2015
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कैसा लव था तब ?कैसा हो गया है अब ?पूज्य होता था कभी,हेय हो गया है अब ।राधा कृष्ण का प्रेम,अखण्ड प्रेम की पहचान है ।नल और दमयन्ती का प्रेम,आज भी एक मिशाल है ।लैला और मजनू की मोहब्बत,पाकीज़गी के रंग रंगी है ।शीरी फ़रहाद के इश्क में ,सारी क़ायनात रंगी है ।आखिर क्या था इनके प्यार में

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जिनकी बदौलत हम सब दीपावली मनाते रहें हैं आज उनके घरों में अंधेरा है...

29 अक्टूबर 2016
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<p>कुरुक्षेत्र के लाड़ले शहीद मनदीप (जिनका सिर पाकिस्तान काट ले गया और हम... ), शहीद नितिन सुभाष और

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विकृतियाँ समाज की

18 नवम्बर 2016
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<p>मित्रों आप सब के आशीर्वाद से हमारी पहली कृति विकृतियाँ समाज की छप कर आ गयी है... यह पुस्तक amazon

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'समग्र सामान्य हिन्दी' : देश के प्रत्येक प्रतियोगी विद्यार्थी के लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण

8 अक्टूबर 2021
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<p>'समग्र सामान्य हिन्दी' : देश के प्रत्येक प्रतियोगी विद्यार्थी के लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण</p> <

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