उस आग की लपटें
अभी महसूस होती हैं ,
जल रहे गुलशन की
आहें नज़्म होती हैं ।
दर-ओ-दीवार रोती है
सिसककर याद कर जिसको ,
वतन की आत्मा फिर आज
वो मंज़र देख रोती है ।
वतन पर जो हुए क़ुर्बान
ये हालत देख रोते हैं ,
अपने ही सितमग़र हैं
सितम चहुँ ओर होते हैं ।
क्या चाहा था क्या मिला
कुछ समझ आता नहीं,
शहादत पर हमारी ही
यहाँ व्यापार होते हैं ॥