अपने बच्चों पर सब कुछ लुटाने के बावजूद उनसे एक झलक की भीख मांगते हुए माँ बाप और अपने माँ बाप से सब कुछ लूट लेने के बाद भी उनकी संपत्ति के लिए उनके मरने का इंतज़ार करते बच्चे। बच्चों से अपेक्षा और बच्चों की उपेक्षा के बीच घुट घुट कर जीते हुए अभिभावकों के ऊपर बॉलीवुड में अमृत, बागबान, भूतनाथ जैसी बहुत सी फिल्में पहले ही बन चुकी हैं जिनमें 2.5-3 घंटे के रोने धोने के बाद आखिर में बच्चों को उनकी गलती का एहसास हो जाता हैं क्योंकि उनके पिता बड़े व्यापार ी, लेख क या भूत बन जाते हैं पर क्या असल ज़िन्दगी में ऐसा होता हैं? क्या ऐसे बच्चों को कभी अपने माँ बाप के दर्द का एहसास होता है? क्या हो अगर उम्र के इस पड़ाव में भी आपके सबसे बड़े मार्गदर्शक और शुभचिंतक आपके पिता आपके साथ हो जो अपनी जिंदादिली से कुछ भी करके आपको जीने की राह दिखाना चाहते हो?
यही सब बातें इस फ़िल्म को इसी विषय पर बन चुकी दूसरी फिल्मों से अलग करती है।
इसी नाम के गुजराती नाटक पर आधारित ये फ़िल्म अपने सेटअप, बजट और स्क्रीनप्ले से एकदम थिएटर देखने का ही अनुभव देती हैं पर फिर भी सिर्फ 3 किरदारों की आपसी बातचीत पर बनाई गई 1 घंटा 40 मिनट की फ़िल्म में शायद ही कोई लम्हा हो जब आपको बोरियत महसूस हो। एक 102 वर्षीय पिता की अपने 75 साल के बेटे को उसके बेटे से बचाने की जंग को जो वास्तविकता अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर ने प्रदान की हैं वो ये साबित करती हैं कि इन दोनों से बेहतर ये किरदार हिंदी सिनेमा में तो कोई और निभा ही नही सकता था। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर दोनों ही इस तरह के किरदार पहले भी निभा चुके हैं जिनमे अमिताभ खुशमिजाज़ और ऋषि कपूर तुनकमिजाज दिखाए गये हो पर ये पहली बार हैं की दोनों इस तरह के किरदारों के साथ एक साथ आये हैं।
अगर एक सप्ताहांत नकली अमेरिकन सुपरहीरोज एवेंजर्स के ऊपर बिताया हो तो एक असली सुपरहीरोज के लिए बिताइए और अगर नकली वालों पर नही भी बिताया तो भी असली वालों पर बितायिए और एक बार फिर माता पिता के आपके लिए किये गए बलिदानों को याद कीजिये। पर जैसा कि मेरे पिता जी ने इस फ़िल्म के बारे में कहा कि ऐसे बच्चों को दिखाने वाली बहुत सी फिल्में बन चुकी हैं जो अपने माता पिता को अपने साथ नही रखना चाहते पर ऐसी फ़िल्म कब बनेगी जिसमें उन माँ बाप को दिखाया गया हो जो अपना घर छोड़कर अपने बच्चों के पास रहना नही चाहते। मुझे भी ऐसी ही किसी फ़िल्म का इंतज़ार हैं।