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वो "अशुभ" दिन जब मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ फिर से जी उठी

18 अक्टूबर 2017

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6 साल पहले मैंने मुंशी प्रेमचंद जी की लघुकथाओं का संग्रह ख़रीदा था। कथा संग्रह २ भागों में था पर पढने का कभी समय ही नही मिला। करीब 2.5 वर्ष पहले जब मेरी माँ का देहांत हुआ तब मन बड़ा ही व्यथित था जीवन से मन उचट सा गया था तब मैंने वो कथा संग्रह पढना शुरू किया पर 10-12 कथाओं के बाद पढने की हिम्मत ही न रही लगभग सभी कथाओं में सरपंचों, साहूकारों, ब्राहिम्नों, समाज के तथाकथित ठेकेदारों और उच्च जाति के लोगों द्वारा गरीबों और निम्न जाति के लोगों पर किये गए शोषण का भयावह चित्रण था गरीब लोग दवा और भोजन के अभाव में मरते हुए दिखाए जा रहे थे जहाँ मैं जीने का उद्देश्य दूंढ़ रहा था वही ये कहानियाँ पढ़कर मुझे अपने आपसे ही चिढ होने लगी थी


फिर मैंने अपने आपको समझाने की कोशिश करते हुए सोचा कि ये सब आज़ादी मिलने से पहले की कहानियाँ हैं अब समय बहुत बदल चूका हैं अब जनता के द्वारा चुनी गयी सरकारें हैं, उनको नियंत्रण में रखने के लिए विपक्षी दल हैं, 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल हैं, सोशल मीडिया हैं, गरीबों के लिए बनाये गए सैकड़ों विभाग और हजारों योजनायें हैं, ऐसे में ये संभव ही नही कि कोई गरीब भूख से मर जाए मुझे पता था की ये दलीलें देकर मैं अपने दिल को सिर्फ बहला रहा था और सच्चाई मुझे भी मालूम थी और मेरे दिल को भी इसलिए मैंने चुपके से उन किताबों की अलमारी के किसी कोने में छुपा दिया किताबों को छुपाकर मैं उन्हें अपनी नज़रों से दूर नही कर रहा था बल्कि अपने चेहरे को उन किताबों से छुपा रहा था क्योंकि उनका सामना करने की हिम्मत मुझमे थी ही नही


अपनी ज़िन्दगी में मशगूल कल जब मैं एक समाचार चैनल देख रहा था तब अचानक ऐसा लगा जैसे कि वो किताबें अपने आप अलमारी से बाहर आ गयी हैं और उनमें लिखी हुई एक कहानी सुना रही हैं उस कहानी में झारखण्ड के एक गाँव में रहने वाली एक 11 साल की लड़की भूख से तडप रही होती हैं क्योंकि उसने 8 दिन से कुछ नही खाया होता हैं पिता मानसिक रोगी हैं और माँ दिहाड़ी मजदूर जिस राशन कार्ड के सहारे काम चल जाता था वो आधार कार्ड न होने की वजह से फ़रवरी में ही निरस्त किया जा चुका था माँ को कुछ दिनों से काम नही मिल रहा होता हैं तो घर में खाने को कुछ भी नही बचता हैं बेटी को पेट दर्द से तड़पता देख, माँ उसको एक हकीम के पास लेकर जाती हैं तो वो कहते हैं कि कोई तकलीफ नही हैं, इसको भूख लगी हैं, इसको खाना खिलाओं पर वो हकीम सब जानते हुए भी कि इनके पास खाने को कुछ नही हैं, उनकी कोई मदद नही करते हैं पड़ोसी राशन कार्ड दिलाने के लिए अधिकारीयों से बात करते हैं पर एक भूखे बच्चे के लिए खाने की व्यवस्था नही कर पाते हैं


एक समाजसेवी संस्था भी हैं वो भी राशन कार्ड दिलाने के लिए कोशिशों में जुटी हैं पर उसको भी बच्ची का भूख से तड़पना दिखाई नही देता हैं सरकारी अधिकारी तो जैसे नौकरी की शपथ लेते हुए अपनी सारी मानवता वही त्याग देते हैं नेताओं और समाचार वालों को कोई परवाह नही क्योंकि अभी तो बच्ची जिंदा हैं एक बार मरने तो दीजिये पहले, फिर देखिये हमारा नाटक एक मजबूर माँ हैं जिसमे पास घर में चाय पत्ती, नमक और पानी के अलावा कुछ नही हैं उसको पता हैं कि इससे भूख नही मिटेगी पर फिर भी वो एक आखिरी उम्मीद के साथ पानी गर्म करती हैं, उसमें चाय पत्ती और नमक डालती हैं और बेटी को पी लेने को कहती हैं भूख से तड़पती बेटी पीने से मना करती हुई ज़मीन पर गिर पड़ती हैं और भात मांगते मांगते दम तोड़ देती हैं


मरने की खबर समाचार में आते ही सबसे पहले माँ का राशन कार्ड बनवा दिया जाता हैं सरकारी कर्मचारी मौत की वजह भूख नही मलेरिया बताते हैं मुख्मंत्री जी 50000 का इनाम..माफ़ कीजियेगा मुआवजा देने की घोषणा करते हुए जांच बिठा देते हैं विपक्षी दल और समाचार वालों का सरकार पर हमला शुरू हो जाता हैं और मैं, उस बच्ची की माँ की तरह एक कोने में स्तब्ध सा बैठा रह जाता हूँ क्या इतने लोगों में से एक भी ऐसा नही था जो उस 8 दिनों से भूख से तड़पती बच्ची को एक बार भी भरपेट खाना खिला देता यही सब सोचकर अपने शर्म से लटके हुए सिर के साथ कुछ ऐसा महसूस कर रहा हूँ जैसे मुंशी प्रेमचंद जी की किताबें मेरा मज़ाक उड़ाते हुए कह रही हो कि अब बताओ, कहाँ छुपाओगे इस चेहरे को?

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