1992 में एक फ़िल्म आई थी, नाम था यलगार। फ़िल्म के एक सीन में 53 वर्षीय पुलिस इंस्पेक्टर फ़िरोज़ खान, जो फ़िल्म के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एडिटर और ज़ाहिर हैं कि लीड हीरो भी थे, अपने 34 वर्षीय पिता कमिश्नर मुकेश खन्ना को फ़ोन पर कहते हैं कि जब आपको पता हैं कि दुनियां का सबसे खतरनाक कॉन्ट्रैक्ट किलर, कार्लोस, आपको मारने के लिए शहर में आया हुआ हैं तो आप बिना किसी सिक्योरिटी के बाहर क्यों चले गए। इसपर मुकेश खन्ना जवाब देते हैं कि "सिक्योरिटी आज तक किसको बचा पायी हैं राजेश। कैनेडी, इंदिरा, राजीव गांधी किसी को भी नही तो मुझे कैसे बचाएगी।" ये संवाद ड्राइवर बनकर गाड़ी चलाने में खोए हुए कार्लोस को इतना पसंद आ जाता हैं कि वो खुद को रोक नही पाता और मुकेश खन्ना की तरफ मुड़कर कहता हैं कि "आपने एकदम सही कहा कमिश्नर, सिक्योरिटी आजतक किसी को नही बचा पाई" और उनको गोली मार देता हैं। एक दो गानों के अलावा फ़िल्म में याद रखने लायक कुछ खास नही था पर ये संवाद कुछ ऐसा था कि दिमाग में ठहर सा गया।
मुझे बचपन में थोड़ा बहुत त्योहार मनाने का शौक हुआ करता था पर जैसे जैसे उम्र बढ़ती गयी, हालात कटी पतंग की आशा पारेख जैसी "न कोई उमंग हैं न कोई तरंग हैं" वाले होते गई। होली पर घर मे दुबके रहना कि कोई रंग न गिरा दे और दीवाली पर दरवाजे, खिड़कियाँ बंद रखते हुए धुएं को अंदर आने से रोकने की कोशिश करना, बस इसी क्रियाकलापों में दिन गुजर जातें। पर पिछले कुछ साल में महसूस हुआ कि अब लोगों में भी इतना शौक नही रहा। पहले पूरा हफ्ता शोर रहता था, अब वो शोर एक दिन भी मुश्किल से होता हैं। दीवाली की पूरी रात जो पटाखों की तेज़ आवाज में ही गुजरती थी, अब आधी रात से बहुत पहले ही शांत हो जाती हैं। अब इसको महंगाई की मार कह लो या बढ़ती हुई जरूरतें, ज्यादातर लोग पैसा सोचसमझ कर खर्चने लगे और पटाखों पर फ़िज़ूलख़र्ची से बचने लगे पर फिर भी कुछ लोगों की तकलीफ कम न हुई। दीवाली की रात किसी के कुत्ते को डर लगता था और किसी की बिल्ली को पर उनके पेट में गए बकरे को कभी डर नही लगता था क्योंकि वो तो हज़म हो गया था।
हमारा देश एक पूर्णतया लोकतांत्रिक देश हैं इसलिए यहां मरे हुए इंसान और डरे हुए जानवर की पूरी कद्र की जाती हैं। इसी चीज़ को मद्देनजर रखते हुए माननीय आदरणीय सुप्रीम कोर्ट के 3 न्यायाधीशों ने मिलकर फैसला सुना दिया कि 9 अक्टूबर से लेकर 31 अक्टूबर तक दिल्ली में कोई पटाखा, फुलझड़ी नही बिकेगी। दुकानदारों ने पूछा कि "अब ये क्या नई बकवास हैं। 12 सितंबर को तो बोले थे कि लाइसेंस ले लो और पटाखे बेच लो क्योंकि एकदम से धार्मिक आस्था के खिलाफ जाना ठीक नही रहेगा। अब हमने करोड़ों रुपए लगाकर पटाखों का ऑर्डर दे दिया, दुकान किराये पर ले ली तो अब जैसे शिवरात्रि की भांग का नशा उतरा हो और "आज कुछ तूफानी करते हैं" वाले मूड में आकर सीधा बैन ही लगा दिया। ये सब नुकसान कौन भरेगा?" अब इन दुकानदारों को कौन समझाए की जज साहब के बच्चों का पटाखे बेचने का धंधा थोड़े ही हैं जो वो परवाह करेंगे। सुबह बेटे ने पैसे मांग लिए होंगे पटाखों के लिए तो खुन्नस में आकर बैन ही लगा दिया। इनको न तो कोई चुनाव लड़ने होते हैं और न ही कोई जवाबदेही होती हैं। ये तो गीता में समझाई गयी आत्मा के समान हैं। न कोई इन्हें छू सकता हैं और न ही कुछ बिगाड़ सकता हैं। योग्यता हो न हो, भाईचारे से सिलेक्शन और उससे ही प्रमोशन होता हैं। मन मर्ज़ी से संविधान की व्याख्या करते हैं और एक बार मुंह से निकल गया तो निकल गया, फिर कही कोई सुनवाई भी नही हैं। कुछ नेता अपने को "राजा" समझते फिरते हैं पर असली राजा तो ये सुप्रीम कोर्ट वाले ही हैं।
कुछ लोग पूछ रहे हैं कि चलो माना पटाखों पर बैन लगाना ही हैं तो हमेशा के लिए लगाओ, ये दीवाली पर ही क्यों। अरे भई नवंबर में शादी का सीजन शुरू होता हैं तो जज लोगों के घर, रिशेतदारी में शादी होगी। उस समय अगर पटाखों की आवाज न आई तो क्या इज़्ज़त रह जायेगी सुप्रीम कोर्ट के जज की। उसके बाद दुनियां को दिखाने के अंग्रेजों का नया साल भी मनाना हैं। जज A K Sikri साहब तो अपनी बीवी के साथ वैसे ही विदेश यात्रा पर निकल जाएंगे जैसे वो अब तक 7 विदेश यात्राओं पर सुप्रीम कोर्ट के 38 लाख खर्च करवा चुके हैं पर बाकी लोग तो देश में ही मनाएंगे न। उनका भी तो ख्याल रखना है। और शायद आप भूल रहे हैं कि उन लोगों की भावनाओं का भी ख्याल रखना है जो पाकिस्तान की जीत पर खुशी मानते हैं। वो पटाखे नही जलाएंगे तो देश का सेकुलरिज्म, खेल भावना कैसे दिखाई देगी भला।
कुछ लोगों की ये भी शंका हैं कि सिर्फ दिल्ली ही क्यों। सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया हैं, दिल्ली हाई कोर्ट थोड़े ही हैं और न ही पटाखे कोई इंसान हैं जो जात, पात, भाषा, पार्टी, राज्य देखकर फायदा नुकसान करेंगे, लगाना हैं तो पूरे देश में बैन लगाओ। उन लोगों को ये समझने की जरूरत हैं कि जब कोई नया इंजेक्शन इज़ाद होता हैं तो बाजार में एकदम नही उतारा जाता। पहले कुछ लोगों को लगाकर रिएक्शन देखा जाता हैं। किसी को तकलीफ होती हैं तो इंजेक्शन आगे इस्तेमाल नही होता पर अगर कोई खास साइड इफ़ेक्ट न हो तो फिर सबको लगाने के लिए उतार दिया जाता हैं। ये बस वही ट्रायल हैं अभी के लिए।
जैसा की हमारी पौराणिक कथाओं में हमेशा देखने को मिलता हैं कि जब कोई सिद्ध पुरुष या महिला किसी को कोई श्राप देते हैं तो क्षमा याचना करने पर उस श्राप को खत्म करने का तरीका भी बताते हैं। उसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने अभी सिर्फ पटाखों की बिक्री पर बैन लगाया हैं, पटाखे जलाने पर नही। साफ साफ शब्दों में ये कहा हैं कि शटर खोलकर नही बेच सकते पर शटर बंद करके बेचने में कोई दिक्कत नहीं, बस हमारे पुलिस वालों की दीवाली का ख्याल रखना। वैसे अगर ये स्थिति यलगार फ़िल्म में आती तो शायद मुकेश खन्ना कुछ ऐसे बोलते कि "बैन आजतक किस चीज़ को रोक पाया हैं? पॉलिथीन, पराली जलाना, इंडस्ट्रियों का नदियों के पानी को ज़हरीला बनाना, धूम्रपान, किसी को भी नही तो एकदम बोलकर पटाखों को कैसे रोकोगे?" और जैसा कि न्यूटन का तीसरा नियम हैं जिस चीज़ को करने के लिए एकदम से मना कर दिया जाता हैं, उसको करने की इच्छा उतनी ही तीव्र होती हैं इसलिए अभी तो ऐसे ही आसार लग रहे हैं कि जो लोग पटाखे जलाना छोड़ चुके थे, वो भी शायद इस पटाखों की भ्रूण हत्या के तुगलकी फरमान के खिलाफ पटाखे जलाने की सोचेंगे और मेरी बरसों पुरानी धुंए से भरी यादें ताज़ा करेंगे।