शनिवार और रविवार शांति से बिताने के बाद सोमवार सुबह जब आँख खुली तो शोर मचा हुआ था कि "लाल किला बिक गया।" सोशल मीडिया पर पोस्ट पर पोस्ट डालकर हांफते हुए मोदी सरकार के एक अखंड विरोधी को पकड़ा और पूछा, "अब क्या हो गया भाई"?
मत पूछो भाई। गज़ब हो गया। लाल किला बिक गया। ताजमहल भी बिकने वाला हैं।
किसने खरीदा? राष्ट्रीय दामाद रॉबर्ट वाड्रा जी ने?
नही उन्होंने नही खरीदा। वो तो अब 2019 में अपने साले साहब की सरकार आने के बाद ही कुछ खरीदने का सोच रहे हैं।
ओह्ह, उन्होंने नही खरीदा तभी हल्ला मचा हुआ हैं। फिर क्या अम्बानी ने खरीद लिया?
नही वो भी नही, कोई डालमिया हैं।
शुक्र हैं फिर तो कि अम्बानी ने नही खरीदा। नही तो आप लोग जिओ के सस्ते इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए उसी को गाली दे रहे होते। वैसे बिका कितने का?
25 करोड़ में बेच दिया देश की धरोहर को।
बस 25 करोड़। माना आज तक हरेक सरकार ने उसे खंडहर की तरह ही रखा हुआ था पर दिल्ली में ज़मीन का रेट तो इससे कही ज्यादा होना चाहिए था।
मत पूछो बस। वही हो रहा हैं जिसका डर था। मोदी 2019 में हारने वाला हैं इसलिए पहले ही देश बेच रहा हैं ताकि बाकी लोगों के लिए कुछ न बचे। मैं अब चलता हूँ। सोशल मीडिया पर #RedFortSold वाली पोस्ट डाल डालकर देश को बचाना हैं मुझे।
पिछले 4 साल में सोशल मीडिया पर समय खराब करके सिर्फ एक ही चीज़ सीखी थी कि अंध समर्थकों और अंध विरोधियों पर न तो कभी विश्वास करो और न ही उनसे बहस करो इसलिये उस भाई को ख़ुशी ख़ुशी जाने दिया और खुद ही खबर की पड़ताल की तो पता चला कि सरकार ने पिछले साल ही एक योजना निकाली थी जिसमें निजी कंपनियों को राष्ट्रीय धरोहरों की देखरेख के लिए आगे आने को कहा था। इसी सिलसिले में डालमिया ग्रुप ने अगले 5 साल के लिए लाल किले पर 25 करोड़ रुपए खर्च करने का समझौता सरकार के साथ कर लिया जिसमें लाल किले की देखरेख और पर्यटकों के लिए सुविधाएं विकसित करना शामिल हैं।
पहला सवाल यही उठा कि कोई निजी कंपनी बिना किसी फायदे के ऐसा समझौता क्यों करेगी। समर्थकों का कहना था कि कंपनी सिर्फ देश की भलाई के लिए आगे आयी हैं। ये बात बिलकुल भी हज़म नही हुई। अपने देश की निजी कंपनियां देश की सेवा के लिए आपस मे प्रतियोगिता करें, ऐसा भी कोई रामराज्य नही आया। इसलिए जब विरोधियों की तरफ रुख किया तो पता चला कि डालमिया ग्रुप लाल किले में जगह जगह अपने विज्ञापन लगाएगा और टिकट के पैसे भी उसी की जेब में जाएंगे।
टिकट की बात आते ही 14 साल पहले का समय याद आ गया जब मैंने अपने मित्र के साथ 11 रुपए की टिकट लेकर लाल किले में प्रवेश किया था। एक एक म्यूजियम की हालत ऐसी थी कि घुसते हुए सोचना पड़ रहा था कि इससे वापिस निकल भी पाएंगे या नही पर 11 रुपए वसूल करने के चक्कर में एक एक के अंदर गए और किस्मत से ज़िंदा वापिस भी आये। आज उसी लाल किले को जब कांग्रेस एन्ड संस राष्ट्रीय धरोहर बोल बोलकर चीख पुकार मचा रहे हैं तो ऐसा लगता हैं मानो एक बेटा बोल रहा हो कि ये मेरी माँ हैं, मैं भले ही इसको भूखा रख कर मार दूं पर किसी बाहर वाले को खाना खिलाने नही दूंगा।
अगर किसी निजी कंपनी को किसी चीज़ की देखरेख का ज़िम्मा देने का मतलब उसको बेच देना हैं फिर तो हमारी भारतीय क्रिकेट टीम पहले अमेरिका के STAR TV के हाथों बिकी थी और अब उसे चीन की कंपनी OPPO ने खरीद रखा हैं। सवाल ये भी उठना चाहिए कि जिस देश मे क्रिकेट को धर्म माना जाता हैं क्या उस देश की सरकार सिर्फ 25-30 खिलाड़ियों का खर्चा नही उठा सकती जो उन्हें निजी कंपनियों के विज्ञापन चिपका कर घूमना पड़ता हैं।
सवाल ये भी उठता हैं कि क्या सरकार के पास 25 करोड़ भी नही हैं जो लाल किला संभालने का काम निजी कंपनी को देना पड़ा पर क्या सवाल सिर्फ 25 करोड़ का ही हैं? आज़ादी के 70 साल बाद भी अगर लाल किला जर्जर हालत में हैं तो क्या वो सिर्फ पैसे की कमी की वजह से हैं। जितने देशी विदेशी लोग हर रोज़ टिकट लेकर लाल किला देखने आते हैं उसमें 25 करोड़ से कही ज्यादा की कमाई कुछ महीनों में ही हो जाती होगी। सवाल पैसे का कभी था ही नही, सवाल हैं सिर्फ और सिर्फ काम करने की इच्छाशक्ति का जो हमारे सरकारी कर्मचारियों में पाई ही नही जाती। आज तक जितनी भी सरकारें हुई हैं सरकारी कर्मचारियों से काम लेने में नाकाम हुई पर सिर्फ वर्तमान सरकार ने ही अपनी इस नाकामी को स्वीकार किया और राष्ट्रीय धरोहरों को सहेजने का काम निजी कंपनी को सौंपने का फैसला ले लिया, बिल्कुल वैसे ही जैसे पासपोर्ट जैसा महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बनाने का काम बिना किसी शोर शराबे के TCS को दे दिया गया था। पहले जहाँ एजेंट के बिना काम नहीं होता था आज कोई भी बिना किसी मदद के पासपोर्ट बनवा सकता हैं जिस वजह से एक भी ऐसा इंसान नही जो सरकार के इस फ़ैसले की तारीफ़ न करता हो।
कुछ लोग इस फैसले को "शाहजहाँ" के लाल किले को बेचने की बात करके हमेशा की तरह हिन्दू-मुस्लिम कार्ड खेल ने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें ये पता होना चाहिए कि न सिर्फ लाल किले के संरक्षण में लगे लोगों ने बल्कि दिल्ली की जामा मस्जिद से जुड़े मुस्लिम लोगों ने भी सरकार के इस कदम का पुरज़ोर समर्थन किया हैं और जामा मस्जिद को भी इस योजना में शामिल करने की गुज़ारिश की हैं। वही कुछ लोगों का कहना हैं कि लाल किले में जगह जगह डालमिया ग्रुप के विज्ञापन दिखेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे डालमिया का लाल किला देखने आए हैं। वो लोग बताएं कि क्या कभी विज्ञापनों से लिपी पुती दिल्ली मेट्रो में सफर करते हुए उन्हें लगा है कि दिल्ली मेट्रो में नही, पेप्सी, स्नैपडील, अमेज़न की मेट्रो में सफर कर रहे हैं। अगर सुविधा मिलती हैं तो किसी को कोई फर्क नही पड़ता कि किसका विज्ञापन कहां लगा हुआ हैं। हां अगर इस फैसले की वजह से लाल किले के अंदर किसी संग्रहालय में पैर रखते हुए पर्यटकों को अपने जीवन बीमा की याद नही आती हैं तो न सिर्फ देशवासियों बल्कि विदेशियों की नज़र में लाल किले के सम्मान में बहुत फर्क ज़रूर पड़ेगा।
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