क्रिकेट का खेल तो हमें विरासत में मिला हैं। हमारे दादा जी देखते थे, पापा भी देखते थे तो हम भी देखते हैं। एक समय वो था जब हम अपने दादा जी के साथ टेलीविजन पर मैच देख रहे होते थे और जैसे ही एक भारतीय खिलाड़ी बल्लेबाजी के लिए आता था, दादा जी के मुंह से कुछ आपत्तिजनक शब्द निकलते थे। उनके कहने का मर्म होता था कि ये अब बस गेंदें खायेगा और हमें मैच हरवायेगा। देखा देखी हमारे मुंह से भी यही निकलता था कि ये आउट हो और अगला खिलाड़ी आये। अगर टेस्ट क्रिकेट में उस खिलाड़ी को विपक्षी गेंदबाज नफ़रत भरी निगाहों से देखते थे तो एकदिवसीय क्रिकेट में भारतीय समर्थकों को वो सख्त नापसंद था।
खिलाड़ी में कोई कमी नही थी। गेंद को बहुत बढ़िया तरीके से खेलता था। उसको छकाना किसी भी गेंदबाज के लिए बहुत मुश्किल था। दिक्कत बस ये थी कि रन नही बनते थे। एक कमेंटेटर ने मैच के दौरान कहा था कि “खिलाड़ी की तकनीक में कोई कमी नही हैं, बल्कि एक दम सही तकनीक हैं और यही वजह हैं कि हर शॉट सीधा फील्डर के हाथ में जाता हैं, न दाएं और न ही बाएं”। सही मायने में ये खिलाड़ी इस बात का जीता जागता प्रमाण था कि दुनियां में परफेक्शन की बात तो बहुत होती हैं पर परफेक्शन से सफलता नहीं मिलती। लेकिन ये खिलाड़ी हार मानने वालों में से कहा था। उसने अपने आपको साबित करने के लिए जी जान लगा दी। टीम में उसको नंबर 1 से नंबर 8 तक की पोजीशन पर बल्लेबाजी करने को कहा तो भी उसने बिना शिकायत बल्लेबाज़ी की। कभी ओपनर तो कभी विकेटकीपर, जो जिम्मेवारी दी उठायी और अपने खेल को ऐसा निखारा कि जिस बल्लेबाज ने कभी 21 गेंद में 1 रन बनाने का रिकॉर्ड बनाया था, उसने ही 22 गेंद में 50 रन का रिकॉर्ड भी बनाया और जब एकदिवसीय क्रिकेट को अलविदा कहा तब तक वो 10000 रन से ऊपर बना चुका था जो सचिन के बाद किसी भी भारतीय बल्लेबाज के सबसे ज्यादा रन थे।
टेस्ट मैच में तो उनका कोई सानी था ही नही। विदेशी दौरों में तो वो भारत के सबसे सफल बल्लेबाज थे। 2011 में जब इंग्लैंड में भारत 4-0 से हारी तब भी इस बल्लेबाज ने 3 शतक लगाते हुए 500 के करीब रन बनाए थे पर जब ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भारत की टीम एक बार फिर 4-0 से हारी तब ये ज्यादा रन नही बना पाए पर वहां तो कोई भी नही चला था। भारतीय क्रिकेट के भगवान तेंडुलकर ने भी बस 93 रन ही ज्यादा बनाये थे पर ये खिलाड़ी अब आगे बढ़ने की सोच चुका था। उनको दुख सिर्फ इस बात का नही था कि रन नही बनें, दुख ये था कि स्लिप में आसान कैच छिटक गयी थीं, वो कैच जिनको वो गहरी नींद में भी लपक लेते थे। भला टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा कैच लेने का रिकॉर्ड रखना कोई मज़ाक नही था, ऐसा रिकॉर्ड जो 6 साल बाद भी कोई नही तोड़ सका हैं।
कोई नही चाहता था की वो खेल को छोड़े पर वो खिलाडी मन बना चुका था की अब युवाओं को मौका देना हैं और उसने टेस्ट क्रिकेट भी छोड़ दिया लेकिन क्रिकेट नही छोड़ सका और आईपीएल के ज़रिए युवाओं को सिखाने का ज़िम्मा उठा लिया। साल में सिर्फ 2 महीने काम और अच्छा खासा पैसा, किसी को और क्या चाहिए पर देश को अभी भी उनकी जरूरत थी। एकदिन उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर जूनियर खिलाड़ियों को सिखाने का न्यौता दिया गया। शर्त ये रखी गयी कि या तो आईपीएल में काम कर सकते हो या फिर जूनियर खिलाड़ियों की कोचिंग का। एक तरफ सिर्फ 2 महीने का काम और दूसरी तरफ 12 महीने की मेहनत। एक तरफ चकाचौंध भरी दुनियां तो दूसरी तरफ गुमनामी भरा काम पर उन्होंने बिना एक बार भी सोचे देश के लिए एक बार फिर से काम करने का निर्णय ले लिया। बीच में कही अधिक तनख्वाह के साथ राष्ट्रीय टीम का कोच बनने का मौका भी मिला, पर साफ मना कर दिया क्योंकि उनके अनुसार जूनियर खिलाड़ियों को मार्गदर्शन की कही अधिक जरूरत थी।
आख़िरकार जब भारत की अंडर 19 क्रिकेट टीम ने वर्ल्डकप जीता तो पूरे देश में खुशी की लहर दौड़ गयी। स्वाभाविक भी था आखिर उनकी टीम चौथी बार विश्वविजेता बनी थी पर खुशी इस बात की ज्यादा थी कि इस बार राहुल द्रविड के मार्गदर्शन में बनी थी। भारतीय जनता ख़ुशी में झूम रही थी कि एक ऐसे इंसान की मेहनत रंग लाई थी जिसने हमेशा अपने देश को और अपने काम को अपने से ऊपर रखा। ये लोगों के उस विश्वास की जीत थी कि मेहनत कभी बेकार नही जाती बस आपको बिना हार माने संघर्ष करते रहना हैं। एक न एक दिन आपको आपके संघर्ष का फ़ल जरूर मिलेगा। आमतौर पर सफलता को पैसे और ताक़त की कसौटी पर तौला जाता हैं पर असली सफलता वो हैं जब लोग बिना किसी स्वार्थ के आपकी कामयाबी की दुआ करें और आपकी खुशी में अपनी खुशी महसूस करें। आज अगर राहुल द्रविड़ उस मुकाम पर पहुंचे हैं तो वो इन्होंने हासिल किया हैं हालांकि आज भी अगर आप उनसे बात करेंगे तो सफलता का श्रेय स्वयं को छोड़कर पूरी दुनियां को दे देंगे । शायद इसी को महानता कहते हैं।
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