बात उस समय की हैं जब मैं 8वीं कक्षा मे पढ़ रहा था। एक दिन हमारे मास्टरजी ने कहा कि एक बहुत ही होशियार लड़का दुसरे विद्यालय से हमारे विद्यालय मे आ रहा हैं और इसी कक्षा मे पढ़ेगा। मुझे आज भी याद हैं की “बहुत होशियार” शब्द पर कुछ ज्यादा ही ज़ोर देते हुए उन्होंने मुझे वैसे ही देखा जैसे बाहुबली 2 के अंतिम युद्ध से पहले देवसेना ने भल्लालदेव को देखा था। मास्टरजी और देवसेना का उद्देश्य यही जताना था कि बेटा तुम्हारे राज करने के दिन खत्म हो गए क्योंकि अब तुम्हारी सत्ता को चुनौती देने मेरा “महेंद्र बाहुबली” आ गया हैं। और कुछ हो न हो, सभी विद्यार्थिओं मे उच्च स्तर की उत्सुकता का संचार हो गया। सब उस सूरमा को देखना चाहते थे।
आख़िरकार वो दिन भी आ गया जब उन्होंने दर्शन दिए। थोड़ी देर बात करने पर पता चला कि वो अब तक एक कॉन्वेंट स्कूल मे पढ़ रहे थे और किसी वजह से हमारे विद्यालय मे स्थानांतरित होना पड़ा था। अब समझ मे आ गया था कि हमारे हिंदी माध्यम विद्यालय के अध्यापक पहली झलक मे ही उस लड़के के जबरा फैन क्यों हो गए थे। लड़का अंग्रेजी मीडियम वाला था जिसके मुंह खोलते ही अंग्रेजी टपक जाती थी और जो ऐसी अंग्रेजी बोल पाता हो उसकी होशियारी पर संदेह करना तो जैसे महापाप था। हमने पुछा भाई कैसे कर पाते हो ये सब तो उन्होंने भेद खोला कि उनके स्कूल मे अंग्रेजी बोलना अनिवार्य था और अगर गलती से भी हिंदी निकल जाती तो हर बार 5 रुपए जुर्माना लगता था। बस यही वजह थी कि मजबूरी मे ही सही अंग्रेजी बोलने की आदत पड़ गयी। हमने भी मन ही मन सोचा कि विद्यालय मे तो पढाया जा रहा हैं की हम 1947 में आज़ाद हो गए थे पर यहाँ तो अब भी हिंदी बोलने पर जुर्माना भरना पड़ रहा हैं। कही न कही कुछ तो गड़बड़ हैं पर फिर अपने अन्दर के ACP प्रद्युम्न को नियंत्रित करते हुए सोचा कि चलने दो जैसा चल रहा हैं। कुछ दिनों बाद जब परीक्षाएं हुई और “महेंद्र बाहुबली” अंग्रेजी के अलावा और किसी भी विषय मे अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए तब हमारे सब अध्यापकों की उम्मीदें हवा हो गयी। उन्हें आख़िरकार पता चल गया था की अंग्रेजी बोलने का बुद्धिमत्ता से कोई सम्बन्ध नही हैं। पर मुझे ये जरूर समझ आ गया कि अगर कही भी तत्काल प्रभाव से सम्मान पाना हो तो अंग्रेजी बोलने की कला आना बहुत जरूरी हैं।
जब 11वीं कक्षा मे पहुंचे तो इंजीनियरिंग करने के शौक मे नॉन-मेडिकल ले लिया। इंजिनियर क्यों बनना था इसकी कोई वजह पता नहीं थी पर ये पता था कि विदेशियों ने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया और कितनी बार भारत के शासक आपसी लड़ाई मे बेवकूफ बने, ये सब याद कर करके मुझे और ज्यादा दुखी होना नही था इसलिए आर्ट्स मे तो बिलकुल नही जाना था। बाकी इंजिनियर शब्द मे जो आकर्षण था वो किसी और मे कहा। अब नॉन-मेडिकल ले लिया तो हिंदी की किताब छोड़ कर बाकी सब किताबें अंग्रेजी मे हो गयी पर विद्यालय हिंदी माध्यम ही रहा। हमारे अध्यापक हिंदी मे बोलते और हिंदी मे ही समझाते, बस लिखवाते अंग्रेजी मे थे। यही हाल कॉलेज मे रहा और इन सब चक्करों मे अंग्रेजी बोलना तो न आया पर टूटा फूटा लिखना जरूर आ गया। अंग्रेजी बोलने के लिए अब भी किसी बात को हिंदी मे सोचकर, फिर अंग्रेजी मे अनुवाद करके बोलने का ओवरटाइम करना पड़ता हैं और इसी वजह से जब भी अंग्रेजो से बात करनी पड़ती हैं तो उनकी बात समझने के लिए 2-3 बार “कृपया दोबारा कहिये” बोलना पड़ ही जाता हैं। चाहे दिन भर जुबान टेढ़ी करके कितनी ही अंग्रेजी बोल लें पर आज भी कोई सड़क पर चलता हुआ ताबड़तोड़ अंग्रेजी बोलता हुआ सुनाई पड़ जाता हैं तो दर्शन पाने के लिए एक बार गर्दन घूम ही जाती हैं। अंग्रेजी हैं तो इज्ज़त हैं और अंग्रेजी नही तो कुछ भी नहीं। जैसा की श्री इरफ़ान खान ने “हिंदी मीडियम” नामक चलचित्र मे कहा हैं कि भारत में अंग्रेजी कोई भाषा नहीं हैं, अंग्रेजी एक क्लास हैं और अगर क्लास बनानी हैं तो अंग्रेजी आना जरूरी हैं और चाहे मेरी ज़िन्दगी हिंदी हो पर मेरी बीवी अंग्रेजी ही हैं जिसके बिना काम नहीं चल सकता।
अब आप सोच रहे होंगे की आज अंग्रेजी-हिंदी का रोना लेकर क्यों बैठ गया। अरे आज # हिंदीदिवस हैं। वही दिन जब आज़ादी के बाद हमारे नये नये बने मालिकों ने हिंदी को राजभाषा घोषित कर दिया था और ये बोला था कि 1965 तक सब सरकारी कामों मे अंग्रेजी का इस्तेमाल बंद हो जायेगा और हिंदी ही कामकाज की भाषा होगी। 1965 को गए हुए भी आज 52 साल हो गए, अंग्रेजी माध्यम स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ गए जो महंगे ठेकों पर बच्चों को अँगरेज़ बनाते गए पर फिर भी अंग्रेजी बोलने वाले 5-6% ही हो पाए। हालाँकि अंग्रेजी का रुतबा फिर भी कम नही हुआ। आज भी सारी कानूनी कार्यवाही की लिखा पढ़ी अंग्रेजी मे ही की जाती हैं चाहे मुक़द्दमा लड़ने वालों को अंग्रेजी आती हो या न हो और अगर गलती से कही हिंदी मे फॉर्म मिल भी जायेगा तो उसमे ऐसी शुद्ध हिंदी लिख देंगे कि समझने के लिए हिंदी के अध्यापक की जरूरत पड़ जाए। अगर हिंदी सरकारी काम काज की भाषा नहीं बन पाई तो ये सरकारी इच्छाशक्ति की कमी की वजह से नहीं हुआ हैं, समस्या वही गुलामों वाली मानसिकता की हैं जिसकी वजह से भारत के इतने टुकड़े हुए और सैकड़ों वर्षों की गुलामी झेलनी पड़ी।
हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रयास करने की जगह हमारे नए शासकों ने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए गुलामों को उनकी भाषाओँ के आधार पर अलग अलग राज्यों मे बाँट दिया और उसी फूट डालो और राज करो की नीति के अनुसार आज भी वही लोग अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए दक्षिण भारत में हिंदी को एक बहुत बड़ा खतरा दिखाते हैं पर अंग्रेजी से उन्हें बेशुमार मोहब्बत हैं। नफरत और प्यार भी ऐसा कि अगर कही हिंदी और अंग्रेजी में दिशा निर्देश लिखा दिख जाए तो अंग्रेजी वाले को चूम कर हिंदी वाले को काला कर देते हैं। कोई भी भाषा सीखनी अच्छी बात हैं और ये मानने मे भी कोई शर्म नही की आज अगर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र मे भारत सबसे आगे हैं तो उसमे अंग्रेजी ज्का बहुत बड़ा योगदान हैं पर उसका ये भी मतलब नही की सरकारी सेवाओं में हिंदी की स्थिति सुधार के लिए कुछ भी न किया जाए। ये वैसा ही हो जायेगा की चीन के सस्ते सामान को आयत कर करके हमारी सरकारों ने घरेलू उद्योग ही खत्म करवा दिए हैं । प्रधानमंत्री जी ने तो बोल दिया की हम लोगों को रोज़ डे की तरह तमिल दिवस, तेलुगु दिवस भी मनाना चाहिए पर ये क्या बोलने भर से हो जायेगा? इसके लिए शिक्षा मंत्री प्रकाश जावेडकर को सुनिश्चित करना चाहिए की उत्तर भारत के विद्यालाओ मे दक्षिण की भाषाएँ भी सिखाई जाएँ। यही एक तरीका हैं जिससे आपसी सहमति बन सकती हैं। बाकि भारतीय सीखे न सीखे, विदेशी विश्वविद्यालयों मे हिंदी सीखने वालो की संख्या बढती जा रही हैं। आखिर उन्हें भी तो अपना व्यापार बढ़ाना हैं और भारतीयों से प्रभावी संवाद करने के लिए हिंदी भाषा से बेहतर कोई और भाषा हैं भी नहीं।