रामायण के सुंदर कांड में एक प्रसंग हैं। हनुमान जब सीता की खोज में लंका की और जा रहे थे तब नागों की देवी सुरसा, राक्षसी का रूप लेकर आई और उन्हें बीच समुन्द्र रोक कर कहा कि मुझे वरदान प्राप्त हैं कि कोई भी मेरे मुख से बचकर नही जा सकता इसलिए तुम्हे भी मेरा भोजन बनना पड़ेगा। हनुमान ने कहा कि एक बार मैं अपना काम पूरा कर लूं फिर स्वयं ही आपका आहार बन जाऊंगा पर सुरसा नही मानी। दोनों के ही पास दैवीय शक्तियां थी तो युद्ध तो विकल्प था ही नही। कुछ सोचकर हनुमान ने अपना आकार सुरसा के मुख से बड़ा कर लिया तो सुरसा ने भी अपना आकार उससे ज्यादा बड़ा कर लिया। हनुमान ने अपना आकार और बढ़ाया तो सुरसा ने भी आकार बढ़ा लिया। फिर एकदम से हनुमान ने अपना आकार छोटा कर लिया और सुरसा के मुख में प्रवेश करके बाहर आ गए और बोले कि अब आपका वरदान भी झूठा नही होगा और मेरा काम भी हो जाएगा। इस समझदारी को देखकर सुरसा ने हनुमान को उनकी सफलता के लिए आशीर्वाद दिया और राह छोड़ दी।
आजकल चारों तरफ बस पद्मावती उर्फ पद्मावत ही छाई हुई हैं। मीडिया वाले 4-4.5 रेटिंग्स दे देकर तारीफों के पुल बांध रहे हैं और जनता को बोल रहे हैं प्लीज प्लीज जाओ और देख कर आओ। उधर करणी सेना वाले कह रहे हैं कि अगर देखने का ज़रा सा भी मन कर रहा हो तो बीमा करवा कर ही जाना। क्या पता कल हो न हो। कुछ राज्यों की सरकारें एक तरफ सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगा रही हैं कि हमसे तोड़फोड़ न संभाली जाएगी, दूसरी तरफ सिनेमा मालिकों को आश्वासन दे रही हैं कि फ़िल्म चलानी हैं तो चलाओ, हम पूरी सुरक्षा देंगे और तीसरी तरफ किसी भी जगह 1000-2000 लोग इकट्ठा होकर मॉल और बसें फूंक रहे हैं और बेचारी जनता असमंजस में हैं कि उनकी चुनी हुई सरकारें आखिर हैं किस काम की।
थोड़ा सा फ्लैशबैक में जाये तो ये सब शुरू हुआ एक साल पहले 27 जनवरी 2017 को जब जयपुर में पद्मावती के सेट पर तोड़फोड़ हुई और संजय लीला भंसाली की पिटाई की खबरें आई। करणी सेना के सदस्यों को ऐसा सुनने में आया था कि फ़िल्म में रानी पद्मावती और ख़िलजी के बीच कोई प्रेम प्रलाप का दृश्य हैं। भंसाली ने इस बात से इंकार किया पर करणी सेना को यकीन न हुआ। एक मत ये भी हैं कि इस संदेह की असल वजह रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण का असल जीवन में प्रेमी प्रेमिका होना हैं जो इस फ़िल्म में ख़िलजी और पद्मावती का किरदार निभा रहे हैं। वो दृश्य फ़िल्म में था या नही ये तो पता नही पर ये तो जरूर था कि इस दुर्घटना के बाद भंसाली उस दृश्य को डायरेक्टर्स कट मे भी रखने की हिम्मत नही कर सकते थे। भंसाली ने बोरिया बिस्तरा बांधा और वापिस महाराष्ट्र चले गए जहां फिर से नया सेट बना कर शूटिंग शुरू की। पीछे पीछे करणी सेना वाले भी फ्लाइट पकड़ कर आ गए और कोल्हापुर में भी सेट तोड़ दिया। खैर गिरते पड़ते किसी तरह फ़िल्म पूरी की गई और प्रदर्शन की तैयारी शुरू हुई।
पहला ट्रेलर और गाना आया जिसमें रानी पद्मावती को घूमर पर नाचते हुए दिखाया गया तो हाहाकार ही मच गया। इस विरोध को तो एक बार समझा भी जा सकता था क्योंकि राजपूत, पद्मावती को देवी की तरह पूजते हैं। हैरानी इस बात की हुई कि एक अलाउद्दीन खिलजी फैन क्लब भी खुल गया। Thewire और DailyO जैसी वामपंथी पत्रिकाओं ने ख़िलजी की तारीफ में लेख पर लेख निकाले और उसको भारतवर्ष का रक्षक और आधुनिक भारत का रचयिता बताते हुए भंसाली को मुस्लिम विरोधी तक करार दे दिया गया। खैर भारत में तो कोई समझदार इंसान इन्हें पूछता नही तो शायद अपने पाकिस्तान समर्थकों को खुश करने के लिए ही ये लेख लिखे गए थे। इधर इतिहास से छेड़छाड़ के नाम पर राजपूतों का विरोध बढ़ता जा रहा था उधर जावेद अख्तर जैसे लोग एक तरफ तो भंसाली का समर्थन कर रहे थे दूसरी तरफ ये बोलकर कि पद्मावती तो असल में कोई थी ही नही, आग में घी डाल रहे थे। अब ऐसे दोस्त हो तो दुश्मन की भला क्या जरूरत।
भंसाली और दीपिका को जान से मारने की खुली धमकियां दी जाने लगी पर वो कोई आप और हम जैसे थोड़े ही हैं जिसे कोई राह चलता मूड खराब होने की वजह से जान से मार दें। अच्छे खासे पैसे वाले लोग हैं और पैसे की ताकत तो बताने की जरूरत ही नही। भंसाली ने मीडिया वालों को फ़िल्म दिखाकर समर्थन हासिल करके अपने को सही दिखाने की कोशिश की। पर करणी सेना भी 12% राजपूत वोटों की नेता हैं इसलिए उन्हें भी सरकार की तरफ से कुछ भी करने का वरदान मिला हुआ था। इस तरह कलियुग की 2 शक्तियां आमने सामने आ गयी और अपने आपको एक दूसरे से बड़ा दिखाने लगी। सुप्रीम कोर्ट में फ़िल्म को रोकने की अपील डाली गई तो हर जगह बेमतलब नाक घुसाने वाली कोर्ट ने भी हाथ पीछे खीचते हुए कहा इस बात की तनख्वाह तो फ़िल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड लेता हैं, सारा काम हम से ही करवाओगे क्या? मामला प्रसून जोशी के पाले में डाल दिया गया। अब वो फ़िल्म वाले भी हैं और अब सरकारी आदमी भी बन गए हैं तो उन्होंने हनुमान की तरह युक्ति निकाली कि जिसको फ़िल्म से दिक्कत हैं उसको मेरी तरफ से मुफ्त में फ़िल्म देखने का मौका दिया जाता हैं। कुछ इतिहासकारों और राजवंश के लोगों ने फ़िल्म देखी जिनमें से एक मेवाड़ वंश के अरविंद सिंह भी थे। उनके सुझावों पर भंसाली को बोला गया कि फ़िल्म का नाम जायसी की काल्पनिक कविता पद्मावत पर कर दो, दीपिका की कमर ज़रा ढक दो और कुछ सीन निकाल दो मतलब फ़िल्म को थोड़ा छोटा कर दो ताकि इनको मिला वरदान भी बना रहे और आपका रास्ता भी साफ हो।
पर ये तो कलियुग हैं इसलिए त्रेतायुग की युक्तियां इतनी आराम से काम तो आएगी नही। अरविंद सिंह फ़िल्म देखने के बाद भी इतिहास से छेड़छाड़ की वजह से नाखुश थे और फ़िल्म के प्रदर्शन का अब भी विरोध कर रहे थे। हमारा संविधान भी ऐसा बनाया गया हैं जिसमें किसी महिला की अनुमति के बिना उसका चित्र लेना तो अपराध हैं पर बिना अनुमति के किसी महिला के ऊपर पूरा चलचित्र बना देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाता हैं। ऊपर से करणी सेना भी एक नही तीन तीन हैं तो इस बयान के बाद आपस में ही ज्यादा से ज्यादा तोड़फोड़ की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। कुछ राज्यों ने फ़िल्म की रिलीज़ से हाथ जोड़ लिए और कहा कि हमसे न हो पायेगा तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तुम्हारा काम हाथ जोड़ना नही हैं, मर्द बनो और आगे बढ़ो। अब अदालत को कौन समझाए की आप लोग तो भाई चारे में एक दुसरे को चुन लेते हो पर नेता को तो वोट चाहिए। मौके का पूरा फायदा उठाते हुए हैदराबाद से सांसद ओवैसी साहब ने कहा कि मुस्लिम भी राजपूतों से सीख लें और तीन तलाक़ बिल का एकदम ऐसे ही विरोध करें। बीजेपी के एक विधायक राजा सिंह कह रहे हैं कि देशभक्त लोग फ़िल्म न देखें और हो सके तो जहां ये फ़िल्म चल रही हो उस थिएटर को ही जला दें। कांग्रेस के ताज़ा ताज़ा एजेंट हार्दिक पटेल भी करणी सेना के समर्थन में हैं। अब ऐसे कानून के रक्षक हो तो कानून कौन मानेगा भला और हो भी ऐसा ही रहा हैं। जिसका जो मन आये जला रहा हैं। राज्य सरकारें इस सबके लिए केंद्र सरकार की जगह सुप्रीम कोर्ट पर ठीकरा फोड़ रही हैं और केंद्र सरकार एक बार फिर मूक दर्शक बनी हुई हैं। सरकारी बसें, निजी वाहन और सिनेमा हॉल तो मानो अपने आपको जलाएं जाने का इंतज़ार ही कर रहे हैं।
सबको पता था कि फ़िल्म बनी हैं तो रिलीज तो होनी ही थी, देश मे नही तो विदेश में और नही तो इंटरनेट पर। मसला सिर्फ ये था कि भंसाली को पद्मावती पर फ़िल्म बनाने की हिमाकत के लिए नुकसान पहुंचाया जाए पर आखिर में संजय लीला भंसाली और पद्मावत के निर्माता तो फ़िल्म की फ्री में हुई भारी भरकम पब्लिसिटी के बाद होने वाली कमाई से और अमीर हो जाएंगे। करणी सेना वाले अपनी ताकत के दम पर नेताओं के और चहेते हो जाएंगे। राजपूत फ़िल्म में बदलाव करके "झुका भंसाली जीता राजपुताना" का नारा लगाकर खुश होंगे। नेता अराजक तत्वों को खुली छूट देकर वोट बैंक हथियाने की कोशिश में लगे ही हुए हैं। सबका फायदा ही फायदा हैं, नुकसान तो सिर्फ उसी का हो रहा हैं जिसका हमेशा से होता आया हैं, देश की जनता का जिसको न पद्मावती से और न ही ख़िलजी से कोई मतलब है पर उसकी गाड़ियां और दुकानें बिना किसी वजह के ही फूंकी जा रही हैं और वो लाचारी में ये सब देखने के अलावा कुछ और कर भी नही सकती। इस देश मे वाट तो हमेशा जनता की ही लगती हैं ना
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