आज
दीवाली का आखिरी दिन
पर
मेरे घर
के सोफ़े पर
एक भी सिलवट नहीं ,
ये बात और है
कि मोबाइल पर
शुभकामनाओ की भीड़ है .
नहीं आए वो दोस्त
जिनसे मज़ाक करते
सोहनपपड़ी का
न ही आए वो पड़ोसी
जिनसे हमें लगता है
कि संबंध बढ़िया हैं
छोटी दीवाली से सजाया घर
वैसे ही सजा है
दिया इकट्ठे करने
बच्चे भी नहीं अाएं हैं अब तक
जो बनाते थे पिघली मोम से दिया
या बना कर खेलते थे तराज़ू
अब लगता है
कि आधुनिकता ने
हमको सच्ची
खुशियों से दूर कर दिया
अब संबंधों का भी
डिजटलीकरण हो गया है
जितना पैसा डालेंगे
उतने ही प्रगाढ़ होंगे
पर ,
याद आया कि कुछ लोग तो
आए थे
मेरा चौकीदार ,
मेरा सफाई कर्मी
मेरी मदद कर्मी
जिन्हें हमने अंदर
न बुलाया
प्रसाद दे दरवाजे से ही टरकाया
एक अहम ने
हमारे घर को खुशियों से दूर कर दिया
बच्चों की किलकारियों से
महरूम कर दिया ,
अब लगता है
अगर हमने अपना ड्राइंग रूम न सजाया होता
बस पुराने समय की तरह
कुछ कुर्सिया डाल
हर आते - जाते को बुलाया होता
तो सही अर्थों में
हमने त्योहार मनाया होता
अर्चना पाठक