बेबस है एक आवाज़ लोगो के जर्जर तहखाने मे व्याकुल हो उठती है जब कभी कोई शोर सुनाई देता है डरी हुई थोड़ी सहमी सी इन महानगरों के दोहरे आचरण से जहाँ असत्य का आधिक्य है जहाँ सत्य का मुद्रा से विनिमय उसकी आंखों के सामने होता है जहाँ हर रोज कोई हिंसा किसी नवजात रूपी अवधारणा का हरण कर लेती है विलुप्ति की कगार पर खड़ी होकर हर क्षण खोजती है कुछ दर्रो को जहाँ से वो स्वतंत्र होकर सूर्य की किरणों का अवलोकन कर पाए संचारित हो सके उनमे प्राणदायक आशाए पनपती है इसलिये निरन्तर कि कोई धारणा अपवाद न बन जाये अक्सर उलझ जाती है परंपरावादी समाज मे नही सुलझा पाती है खुद को धीरे धीरे ह्रसित होकर स्वयं अपना ही अस्तित्व समाप्त कर लेती है ----- हिमांशु मित्रा 'रवि'