डरा-डरा सा रहता
है आदमी, आदमी से,
क्या रिश्ता
निभाएगा आदमी, आदमी से।
उसके दिल में कुछ
है, जुबां पे कुछ और,
जानता सब है फिर
भी अंजान है आदमी, आदमी से।
कौन रोके ये अपहरण, हत्या, लूट, बलत्कार,
बेबस है, लाचार है, आज आदमी, आदमी से।
समाज को बदलने की
बातें यहाँ रोज होती है,
करता है बस बातें
ही, आदमी, आदमी से।
हाथों में गीता है, बाइबिल है, कुरान है,
सीख लेता है पाठ
हैवानियत का आदमी, आदमी से।
ये दुनिया बाज़ार
है, नीति सब ब्यापार की,
कैसे फिर हाथ
मिलाये यहाँ आदमी, आदमी से।
इससे ज्यादा क्या
तकलीफ होगी ऊपर वाले को “राज”
पास होकर भी कितना
दूर है आदमी, आदमी से।