बेटी को बेटा कहना उसका अपमान है की नहीं यह एक विचारणीय विषय है . हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते न की हम किस जगह पर रह रहे हैं.और कहाँ की बात कर रहे हैं. सबसे पहले तो मैं अपने आप को खुशकिस्मत मानती हूँ की आज मुझे यह अवसर मिला है की जो मैं सोचती हूँ और जिस विचार की मैं समर्थक हूँ , उसे मैं कलमबंद भी कर सकती हूँ. हम उस
देश की बात कर रहें हैं जहाँ एक परिवार मैं अगर बेटा ना हो तो वह परिवार अधूरा माना जाता है , जैसे
बेटी एक संतान नहीं है . आज भी हम अपने मन को संतावना देते हैं रहते हैं की मेरी बेटी बेटे से कम नहीं है . इसका तो एक ही अर्थ है की एक बेटा ही है जो अपने आप में सम्पूर्ण है और उसकी सम्पूर्णता ही हमारी समाज का मापदंड है . बेटे से कम नहीं या बेटे जैसी कहना एक बेटी का अपमान मेरी नजर में तो है . पर हमारा समाज उसी मापदंड पर चल रहा है . एक बेटी चाहे वह दूसरे परिवार की सदस्य बनकर ही जितना प्यार अपने माँ बाप को या अपने भाई को दे सकती है या जितनी चिंता कर सकती है , उतना एक बेटा नहीं कर सकता . चाहे वह अपने परिवार का बन कर ही क्यों न रहे. मेरा यह मानना नहींहै की बेटियां बेहतर होती हैं या बेटे बेहतर होते हैं , बराबर भी नहीं होते. बस इतना कहना चाहती हूँ की दोनों अलग होते हैं. बेटियां अपने आप में संपूर्ण हैं. तो फिर उनकी तुलना क्यों? तुलना भी उनसे जो खुद उनपर निर्भर होते हैं. अक्सर मैंने लड़कियों को की मैं अपने घर का बेटा बनना चाहती हूँ .मैं उनसे कहना चाहती हूँ की तुम बेटी बनकर ही रहो क्यूंकि इतनी संवेदना ,इतना प्रेम और इतनी ममता बेटे के दिल में नहीं आ सकती . वो तो बस अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं वह भी ठीक से नहीं निभा पाते हैं. आज एक बेटी सब कुछ कर सकती है पढ़ भी सकती है , परिवार की आर्थिकं मांग को भी पूरा कर सकती है . और अगर जरूरत पड़े तो हर तरह की मुसीबतों का सामना भी कर सकती है . उन्हें मौका तो दीजिये . हम उनकी तुलना करते हैं तो उनका अपमान ही है . मशहूर फिल्म दंगल में यह बात बार बार दोहराई गई है की मेरी बेटियां बेटों से काम है क्या? यह हमारी मानसिकता को दर्शाता है . आज भी हम अगर कुछ अच्छा करते हैं तो हमें एक मापदंड पर ला कर खड़ा कर दिया जाता है . जैसे उनका कुछ अस्तित्व ही नहीं है . आज बहुत संघर्ष के बाद तो उन्हें बराबरी का दर्ज़ा मिलना शुरूहुआ है , बेहतर साबित करने में अभी भी दिल्ली दूर है .