जबलपुर से आजमगढ़ ड्योढ़े दर्ज का जनाना डिब्बा और पूरे डिब्बे में अकेली मैं। डाकगाड़ी हवा में उड़ती चली जा रही थी, और मेरे दिमाग में रहर-रहकर एक ही बात चक्कर काट रही थी कि जब-जब मैं बच्ची को लेकर चलती हूँ, डिब्बे में तिल रखने की जगह नहीं होती और आज जब मैं बिलकुल अकेली हूँ तो डिब्बे भर में यात्रा करने वाली एक भी स्त्री नहीं। साथ में न तो कोई पुस्तक थी और न अखबार। मुझे अकेलापन अखरने लगा। बच्ची साथ होती तो वह इस बेंच से उस बेंच, इस खिड़की से उस खिड़की डिब्बे भर में दौड़ लगाती। उसे सँभाल रखने में मैं इतनी व्यस्त रहती कि न तो पुस्तक का ही अभाव खटकता और न किसी सहयात्री का।
जबलपुर से चलकर गाड़ी कटनी में रुकी। दूसरे डिब्बे में कई यात्री चढ़े और कई उतरे, पर इस जनाने इंटर में कोई परिवर्तन न हुआ। मैं जबलपुर से जैसे अकेली चली थी तैसे ही कटनी से भी चली। डाकगाड़ी फिर हवा से बातें करने लगी।
सतना आया, ट्रेन की गति कुछ धीमी पड़ी और मैं उठकर खिड़की के पास बैठ गई। देखा, एक छोटा-सा बच्चा-लड़की या लड़का प्लेटफॉर्म पर दौड़ा चला आ रहा है। उसके हाथों में पीतल की एक छोटी-सी थाली थी। थाली में एक छोटी-सी कटोरी, एक गिलास यह सब वह आरती उतारने की मुद्रा में पकड़े दौड़ रहा था। ट्रेन रुकी और वह बच्चा भी रुक गया, ठीक मेरे डिब्बे के सामने तभी मैंने देखा एक कांस्टेबल और स्टेशन के दो-तीन कर्मचारी उस बच्चे के विषय में कुछ कह रहे हैं। बच्चा उन्हीं के पास खड़ा था। जाने क्या सोचकर वह कांस्टेबल बच्चे को लाया और दरवाज़ा खोलकर डिब्बे में बिठा दिया। बच्चे को बिठाने के बाद वह मुझसे विनय भरे स्वर में बोला, “बहन आप ज़रा इस लड़की को इलाहाबाद में उतार देना। कई दिनों से यह स्टेशन आती है और कहती है कि इलाहाबाद जाना हैं।''
मैंने पूछा, “पर यह बच्ची है किसकी?''
“यह तो मैं नहीं जानता; ” कांस्टेबल ने कहा। ''पर इसे इलाहाबाद जाना ज़रूरी है, कई दिनों से कह रही है और गाड़ी के पास दौड़ुकर आती है।''
मैं और कुछ पूछूँ कि सीटी हो गई और ट्रेन चल पड़ी। मैंने सोचा कि ये भी मुसीबत ही है। ट्रेन इलाहाबाद लगभग ग्यारह बजे पहुँचती है। आज एक घंटा पीछे जा रही है तो बारह बजे से पहले क्या पहुँचेगी। इलाहाबाद पहुँचते पहुँचते यह सो गई तो? क्या इसे कोई लेने आएगा? कोई न आया तो किसे सौंपूँगी इसे? एक साथ मेरे मन में कई प्रश्न उठे, पर ट्रेन चल चुकी थी और वहाँ मेरे प्रश्नों का उत्तर देने वाला कोई न था।
अब मैंने मुड़कर उस बच्ची की ओर देखा। वह बेंच पर न बैठकर नोचे एक कोने में सिमटकर बैठी थी। उसके सामने वही थाली, कटोरी और गिलास थे। देखने में वह पाँच-छह वर्ष से अधिक की न जान पड़ती थी। कपड़ों के नाम पर एक मटमैला-सा कपड़ा उसके शरीर पर लिपटा हुआ था। सिर के बाल लड़कों की तरह कटे हुए थे। चेहरे पर विषाद की गहरी छाप थी। उसे देखकर ऐसा लगता था कि इस छोटी-सी आयु में उसने बहुत दुख देख लिए हैं। मेरी बच्ची और इस बच्ची में कितना अंतर है? यह गढ़ी हुई मूर्ति की तरह शांत और स्थिर बैठी थी। डाकगाड़ी उसी पूर्ण वेग के साथ दौड़ रही थी। पर वह बालिका एक तपस्वी की तरह शांत और मौन बैठी थी। मैंने उसके पास जाकर उसका नाम पूछा, ''उसने मेरी तरफ़ देखे बिना ही जवाब दिया, “रामप्यारी।''
“तुम कहाँ जा रही हो?
“इलाहाबाद।”
“इलाहाबाद में किसके पास जाओगी।” मैंने पूछा।
और इस बार उसने सिर उठाकर उत्तर दिया, “अपने बिआहा के पास जाइत है।”
कितने आश्वासन और विश्वास के साथ उसने कहा बिआहा के पास! तो इसकी शादी भी हो चुकी है? मैंने पूछा, ''तो तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं?”
“मरि गए।'' उसी विकार रहित स्वर में उसने कहा।
“मरे हुए कितने दिन हुए हैं और तुम्हारा कोई नहीं है?''
“ढेर दिन अस्पताल में रहने के बाद वहीं मरि गए! हमारा बिआहा इलाहाबाद मां है।”
“और यह थाली, कटोरी-गिलास कहाँ से लेकर आई हो?”
“अपने घर से लेकर आई हूँ, बिआहा के घर लेकर जा रही हूँ।''
मैंने सोचा यह बच्ची जिसके माँ-बाप के मरने पर इसके बिआहा ने कोई खोज-खबर न ली, उसी बिआहा को खोजने यह कितने विश्वास के साथ निकली है।
मैंने फिर पूछा, ''इलाहाबाद में तुम्हारा बिआहा कहाँ रहता है?''
उसने फिर वही सादा-सा उत्तर दिया, “वहीं इलाहाबाद में।''
अब मैं और क्या पूछती? वह तो इलाहाबाद को भी अपने गाँव सरीखा मानती है। जहाँ गिने-चुने कुछ घर होंगे। आराम से अपने बिआहा को खोज लेगी।
मैंने पूछा, “इससे पहले कभी बिआहा के घर गई हो?”
उसने आश्चर्य मिश्रित कातरता के साथ देखते हुए कहा, '“चलाव हुए बिना बिआहा के घर कोई नहीं जाता।”
अब इससे अधिक उससे प्रश्न करना उस पर अत्याचार होता। अतः मैं चुप रह गई।
गाड़ी उसी तेज़ी के साथ चली जा रही थी। ठंडी हवा तीर की तरह भीतर आकर शरीर को कंपाने लगी। मैंने अपनी शाल निकालकर ओढ़ लिया। मैं केवल दो दिन के लिए जा रही थी। इसलिए कपड़े भी इने-गिने थे। अंत में बहुत सोच-विचार के मैंने तय किया कि बिछाने की चादर के बिना मेरा काम चल सकता है और उसे निकालकर मैंने उस बच्ची को उढ़ा दिया। वह बोली कुछ नहीं, बस विस्मय के साथ मेरी ओर देखती भर रही।
शाम बढ़ चुकी थी। कुछ भूख भी लग आई थी। मैंने खाना निकाला कुछ उसे दिया और स्वयं भी खाया।
उस लड़की ने मेरे मातृत्व को क्रियाशील होने का अवसर दिया।
खाना खाने के बाद मेरी कुछ देर लेट जाने की आदत है। अतः मैं लेट गई और सो गई। इतने में गाड़ी फिर रुकी। यह मानिकपुर था। चित्रकूट दर्शन करके लौटने वाली स्त्रियों का एक झुंड एक साथ डिब्बे में भर गया। मैंने पैर सिकोड़कर दो स्त्रियों को बैठने की जगह दी, किंतु मैं उठी नहीं, लेटी रही। फिर उनका ध्यान उस लड़की की ओर गया और पूछताछ शुरू हो गई।
एक महिला ने मुझसे पूछा, ''क्यों बहन जी! यह बच्ची आपके साथ जा रही है?'' और मैं नहीं कहकर सो गई।
अब सीधे उसी से प्रश्न होने लगे। क्या पूछा गया। मैं सब तो सुन नहीं सकी। रामप्यारी की किसी बात को सुनकर वह जोर से हँस पड़ीं। थोड़ी देर बाद बहुत शोरगुल सुनकर मैं उठ बैठी। देखा तो सामने ही पटिए पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था 'इलाहाबाद जंक्शन' । सजग होकर मैंने उस कोने को देखा जहाँ रामप्यारी बैठी थी, पर वह वहाँ नहीं थी । मेरी चादर समेटकर मेरे पैताने रखकर रामप्यारी अपने बिआहे को ढूँढ़ने चली गई । सामने प्लेटफार्म पर, जहाँ चित्रकूट के दर्शन का पुण्य लाभ करके लौटने वाली स्त्रियों का समूह खड़ा था, जिनसे बिना टिकिट के यात्रा करने के कारण टिकिट जाँचने वाली महिला डबल किराए के लिए उलझ रही थी, मैंने देखा रामप्यारी कटोरी, गिलास और थाली को आरती की मुद्रा में पकड़े खड़ी है । उन स्त्रियों के साथ वह भी रोक ली गई थी। उन स्त्रियों के यह कहने पर कि वह लड़की उनके साथ नहीं है टिकिट जाँचने वाली महिला ने रामप्यारी से पूछा, छोकरी, तू कहाँ जाएगी? कहाँ से आई है? और रामप्यारी का उत्तर था 'घर ते आइत लाग है, अपने बिआहा के घर जाब', और वह आगे बढ़ गई।
मैं देखती रह गई। जंक्शन का कोलाहल उसी प्रकार हो रहा था, पर मेरे कानों में रामप्यारी का स्वर गूँज रहा था, 'बिआहा के घर जाब'।