कुछ घटनाएं आपको और हमें ऐसे कचोटती हैं की पुछिये मत! कल एक ऐसा ही वाकया हुआ। औनलाइन दवाइयाँ खरीदने का दौर अब जबकि शुरू हो चुका है, फिर भी मैं दवा की दुकान पर ही जाना पसंद करता हुँ। इसके कई कारण हैं, जिसको इस पटल पर बता पाना शायद संभव नहीं है। सो कल भी पूर्वी दिल्ली की एक दवा-दुकान पर चला गया। मेरी दवाईयों की फेहरिश्त थोड़ी लंबी थी, सो समय लग रहा था। एक अन्य सज्जन भी खड़े थे और एक महिला भी खड़ी थी। महिला की उम्र यही कोई 30 रही होगी। पहनावे से दिहाह़ी पर काम करने वाले आदमी की औरत लग रही थी। दिल्ली में जी रहे लाखों migrated परिवारों में से एक थी, शायद। उनके साथ एक और वृद्ध महिला भी थी।
दुकान का एक लड़का मेरी पर्ची में और दुसरा लड़का उस पहली महिला के पर्ची में लग चुका था।
"भाई साहब आप दो मिनट वेट कर लिजिए", दुकान वाले ने मेरे बगल में खड़े पुरूष को कहा था।
मुझे न जाने क्यों महिला की पर्ची पर ध्यान जा रहा था। Paediatrician ने कुछ दवाइयाँ लिखीं थी। महिला एक मिनट तक सामने पड़े Bournvita Little Champs के 200gm वाले पैकेट को उलट पलट कर देखे जा रही थी। मैंने देखा उसने उस पैकेट के मुल्य को भी देखा था। मुल्य देख कर वह कुछ सोंचने ही लगी थी कि तब तक दुकान वाले लड़के ने उसकी दवाइयां उसे पकड़ाते हुए कहा, "210/- रुपये।"
"इससे आधा वला पैकेट है?", महिला ने Bournvita Little Champ के उस पैकेट की ओर ईशारा करते हुए पुछा।
"नहीं, नहीं आता है।", लड़के ने जवाब दिया।
महिला ने अपने बटुए से 210/- रुपये दिये और फिर 'पैकेट' के लिए भी पैसे निकालने लगी थी। तभी वृद्ध महिला ने कहा अपनी भाषा में कहा , "रहे दे, और दवाई लेवे पड़ गेलई तब?" (मतलब- और दवाई लेने की जरूरत पड़ गई तब?).
सवाल वाजिब था।
महिला के चेहरे पर एक निराशा दिखी। ये एक माँ की निराशा जो चाह के भी अपने बीमार बच्चे को Bournvita Little Champs नहीं दिलवा पा रही थी। उसने यह भी सोंचा ही होगा की शायद दवाइयों के साथ साथ ये पीकर उसका लाल जल्दी तंदुरुस्त हो जाएगा, मगर...... भारी मन से उसने वो पैकेट वापस दिया, दवाइयों का लिफाफा लिया और चली गई। थोड़ी दूर चलकर ठिठक कर थोड़ा रुकी भी थी, शायद बटुए के रुपयों का फिर से जोड़-घटाव कर रही होगी।
"वो पैकेट कितने का है भाई?", उस महिला के जाते ही मैने सवाल किया। ये सवाल मैंने नहीं, मेरे अंदर से पुछा गया था।
"140/- रुपये", लड़के ने कहा।
उस महिला के चले जाने से पहले ही मेरा मन हो रहा था वो पैकेट उसे दिलवा दूँ। मगर इस वर्ग के लोगों की खुद्दारी ऐसी होती है की हक़ का छोड़ भले दें मगर हराम का छुएँगें नहीं। वो दुसरे वर्ग होते हैं जो हक़ और हराम दोनों का नहीं छोड़ते हैं।
"140 रुपये" कहने के बाद लड़के ने मेरी तरफ सवालिया नजरों से देखा और फिर इंतजार में खड़े व्यक्ति के पर्चे में व्यस्त हो गया था। इस बीच आया एक MR अपनी Tab पर दुकानवाले से दवाईयों का ऑर्डर लेने लगा था। एक माँ अपनी निराशा और बच्चे की दवाइयों के साथ जा चुकी थी। Bournavita Little Champ 200gm का पैकेट वहीं किसी अमीर के इंतजार में पड़ा था।
अब यह व्यवस्था ऐसी है की बताए नहीं बनती। पहले सिंपल Horlicks और Bournvita आया करते थे। मगर अब Women अलग, Little Champ अलग, पुरुषों के लिये भी अलग, और भी कई। शायद, पूंजीवादी व्यवस्था का असर है। उछलते कुदते बच्चों से प्रचार और तस्वीरों से मार्केटिंग तो हो जाती है किंतु हर वर्ग के उपभोक्ताओं का भी ध्यान रखा जाए तो और बेहतर है।
जिस परिवार को बमुश्किल 500/- रुपये की दिहाड़ी मिलती हो वो 210/- रुपये की दवाईयाँ खरीद ले यही बहुत है, 140/- रुपये का Bournvita Little Champ बहुत दूर की चीज होती है। 300/- रुपये में तीन-चार इंसानों के तीन टाईम का पेट भरना दिल्ली जैसे शहर में कितना मुश्किल है ये, बताने की जरूरत नहीं है। उपर से सिर पर छत और तन ढँकने के लिए कपड़े भी उसीेमें लाने हैं। आपको आश्चर्य होगा की कई ठेकेदार जब इस दिहाह़ी में से भी मजदूरों का पैसा काटते हैं ना तो वो सभी मजदूरों से काटे गये कुल राशि गिनते हैं। काश एक बार भुखे रह गये पेटों को भी गिन लेते! ऐसी निराश माँओं के बारे में भी सोंच लेते!
"बिना इन हेल्थ ड्रिंक के भी स्वस्थ रहा जा सकता है", वाली सोंच समाज में बननी चाहिए मगर इस सोंच के अभाव में भी उस महिला की निराशा का कारण है।
उस महिला की निराशा के और भी कई कारण हैं जैसे आर्थिक, सामाजिक, कानूनी आदि मगर फिल्वक्त एक समाधान तो सूझ रहा था। Cadbury के अन्य हेल्थ ड्रिंक्स के छोटे पैकेटों की तरह, काश ये Bournvita Little Champ का भी 100 gm का पैकेट मार्केट में होता तो शायद वो महिला आज निराश नहीं जा रही होती!
लौटते वक्त, मेरी google और दुकानी छानबीन में मुझे तो इसका छोटा पैकेट नहीं दिखा। शायद उपलब्ध हो या जल्द आ जाए या फिर जरूरत ही ना हो!