मेरे गाँव का बूढ़ा नीम,
अब ठूंठ हो गया।
कभी रहतीं थीं रौनकें यहाँ ,
सब झूठ हो गया।
कितने सावन देखे उसने,
कितने पंछी फले फूले।
उसकी मजबूत शाखाओं पर,
डलते थे झूले।
बारिश में आतीं निबोंड़ियाँ,
गिरतीं थी तब टप टप।
आँधी और तूफान में,
खड़ा रहा वह डट कर।
फैलीं उसकी शाखाऐं,
मजबूत तना संभालें।
देता था ठंडी छाँव,
कई मुद्दे सुलझा डाले।
बच्चे खेलते उसके इर्द-गिर्द,
देख देख वो मुस्कुराता।
समेटे अपनी बाहों में,
अपना फर्ज निभाता।
कई पतझड़ देखे,
गिर जाते थे पत्ते।
फिर बसंत बहार में,
बन जाते नए रिश्ते।
अब जो बूढ़ा हुआ,
लोग चलते हैं बच बच के।
ना जाने कब गिर जाए,
देखतें हैं रुक रुक के।