किस पे लिखूँ,
यह धरती कहती है, मुझ पर लिखो।
अनगिनत कविताएँ समाई है मुझमें,
मेरी प्राकृतिक छटा निराली,
ढ़ेरों रंग बिखरे हैं इनमें।
बिल्कुल सही मैं यही करूँगी,
मैं धरती का सौन्दर्य लिखूँगी।
हरी चुनरिया ओढ़े दुल्हनियाँ,
झरने सी इठलाती है।
कहीं बहती हुई सरिताएँ,
कल कल शोर मचातीं हैं।
हरे भरे उपवन सुन्दर में,
रंग बिरंगे फूल खिले।
कहीं छोटी झाड़ झाड़ियाँ,
कहीं वृक्ष विशाल मिले।
पंछी कलरव करते हुए,
कोई गाना गा रहे थे।
कान पर आकर मारी चोंच,
और हम नींद से जाग गए थे।
आँख खुली तो हमने देखा,
ये तो थी बस कल्पना।
इधर उधर नजरें दौड़ाई,
हाय ये था सुंदर सपना।
हरी चुनरिया के रंग अब,
फीके पड़ गए हैं।
खूब घनेरे उपवन अब,
उजडे उजडे लग रहे हैं।
बड़े तरुवर पर चल रहीं आरी,
झाड़ियों पर बिल्डोजर।
कारखानों के शोर में,
खो गया पक्षियों का स्वर।
हरियाली जो देखी सपने में,
वो तस्वीर पुरानी थी।
था वो नजारा काल्पनिक,
परियों की कहानी थी।