चारुलता सी पुष्प सुसज्जित, चंद्रमुखी तन ज्योत्स्ना।
खंजन- दृग औ मृग- चंचलता, मानों कवि की कल्पना।
उन्नत भाल -चाल गजगामिनी, विधि की सुन्दर रचना है।
मंद समीर अधीर छुवन को, सच या सुंदर सपना है।
निष्कलंक -निष्पाप ह्रदय में, पिया-मिलन की कामना।
चारुलता सी पुष्प सुसज्जित, चंद्रमुखी तन ज्योत्स्ना।
तना-ओट से प्रिय को निहारा, नयन उठे और झुक भी गए।
प्रिय- प्रणय की आस ह्रदय में, कदम उठे और रुक भी गए।
थरथर कांपे होंठ हुआ जब, प्रिय से उसका सामना।
चारुलता सी पुष्प सुसज्जित, चंद्रमुखी तन ज्योत्स्ना।
नयन-कोर से रह-रह बहके, धार कुंवारे काजल की।
कंधे से रह-रह कर कटि तक सरके अल्हड़ आँचल भी।
प्रिय ने लिया आलिंगन में तब, पूरी हुई चिर साधना।
चारुलता सी पुष्प सुसज्जित, चंद्रमुखी तन ज्योत्स्ना।
…….. सतीश मापतपुरी